संजय मग्गू
कल ही इजरायल ने करीब सौ मिसाइलें ईरान पर दागी हैं। बीस सैन्य ठिकानों के नष्ट होने की खबर है। इन हमलों में नागरिक और सैनिक भी मारे गए हों, तो कोई ताज्जुब की बात नहीं है। दरअसल, जिस देश पर हमला होता है, वह कम से कम नुकसान दिखाना चाहता है ताकि दुश्मन का मनोबल न बढ़े। मध्य पूर्व एशिया के जो इन दिनों हालात हैं, वह काफी चिंताजनक हैं। पिछले साल 23 अक्टूबर को शुरू हुआ हमास और इजरायल के बीच युद्ध अब लेबनान, यमन से होता हुआ ईरान तक पहुंच गया है। गाजापट्टी में ही अब तक पिछले एक साल में चालीस हजार से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। इजरायल में भी हजारों लोग हलाक हुए हैं। यदि जल्दी ही मध्य पूर्व एशिया में शांति बहाली नहीं हुई तो निकट भविष्य में इसके और विस्तार पाने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में सवाल यह है कि यह युद्ध रुक क्यों नहीं रहा है। अमेरिका, रूस, चीन और भारत जैसे देश इस युद्ध को या रूस-यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध को रोक पाने में विफल क्यों दिखाई दे रहे हैं। भारत तो रूस और यूक्रेन के राष्ट्राध्यक्षों से बराबर कह रहा है कि युद्ध किसी भी समस्या का हल नहीं है। लेकिन उसकी बात को सुनकर भी रूस और यूक्रेन अनसुना कर रहे हैं। भारत की अपनी सीमाएं हैं। उसे अपना भी राष्ट्रीय हित देखना है। इस मामले में सबसे ज्यादा संदिग्ध भूमिका अमेरिका और रूस की दिखाई देती है। एक तरफ तो अमेरिका ईरान, यमन, लेबनान, गाजापट्टी और इजरायल के बीच चल रहे युद्ध को खत्म करने की अपील करता है, वहीं वह जब ईरान पर हमला होता है, तो वह इजरायल की पीठ ठोकता है। शाबाशी देता है। अभी पिछले ही महीने अमेरिका ने इजरायल को आठ अरब 70 करोड़ डॉलर की सहायता दी है ताकि वह अच्छी तरह से लड़ सके। संयुक्त राष्ट्र में पेश किए गए शांति प्रस्ताव का भी वह विरोध करता है। रूस और चीन सिर्फ निंदा करके अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ले रहे हैं। रूस ने तो ईरान को सैन्य सहायता देने का भी आश्वासन दिया है। चीन अपने प्रभाव का इस्तेमाल मध्य पूर्व एशिया में इसलिए नहीं करना चाहता है कि एक तरह से यह अमेरिका की मदद करना ही होगा। अमेरिका और चीन के संबंध कैसे हैं? यह सर्वविदित है। सच कहा जाए, तो अमेरिका, रूस और चीन जैसे देश इस युद्ध को रोकना ही नहीं चाहते हैं। यह ऊपरी मन से युद्ध की निंदा कर रहे हैं, युद्ध बंद करने का आह्वान कर रहे हैं। दुनिया जानती है कि युद्ध में काम आने वाली मिसाइलों, तोपों और अन्य घातक हथियारों के सबसे बड़े उत्पादक देश अमेरिका, चीन, फ्रांस और रूस जैसे देश हैं। युद्ध और राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर ये देश अपने हथियारों को विकासशील और अविकसित देशों को बेचते हैं। जो देश एकमुश्त रकम दे पाने की स्थिति में नहीं होते हैं, उनको किस्तों में हथियारों की रकम चुकाने की सुविधा दी जाती है। वास्तव में इन युद्धों के दौरान ही दुनिया के पुरोधा देश अपने हथियारों की विध्वंसात्मकता का परीक्षण भी कर लेते हैं।
संजय मग्गू