महाराष्ट्र में समर्थ गुरु रामदास को बहुत बड़ा संत माना जाता है। वे वाकई एक बहुत बड़े संत थे भी। वे हमेशा सत्य के मार्ग पर चलने का उपदेश देते थे। उन्होंने हमेशा नारी जाति का सम्मान करने की सीख दी। नारी भले ही विपक्षी की हो, उसका सम्मान करना चाहिए। उन्होंने देश प्रेम की भावना भी लोगों में कूट-कूट कर भर दी थी। एक बार समर्थ रामदास सतारा जाने के क्रम में बीच में देहेगाँव में रुके। साथ में उनके शिष्य दत्तूबुवा भी थे। समर्थ को उस समय भूख लगी। दत्तूबुवा ने कहा कि आप यहीं बैठें, मैं कुछ खाने की व्यवस्था कर लाता हूँ। रास्ते में उन्हें भुट्टे का खेत दिखा, तो सोचा कि क्यों न कुछ भुट्टे को ही उखाड़ लूं। उन्होंने खेत में से चार भुट्टे उखाड़े और भूनने लगे।
धुँआ निकलता देख किसान वहाँ आ पहुँचा। भुट्टे चुराये देख उसने डंडे से रामदास को मारना शुरू किया। दत्तूबुवा ने उसे रोकने की कोशिश की पर समर्थ ने उन्हें रोक दिया। दत्तूबुआ को पछतावा हुआ कि उनके कारण समर्थ को मार खानी पड़ी। दूसरे दिन वे लोग सतारा पहुंचे। समर्थ के माथे पर बंधी पट्टी को देखकर शिवाजी ने पूछा, तो उन्होंने सारा वाकया कह सुनाया। उन्होंने उस किसान को बुलवाने को कहा। किसान वहां आया, उसे मालूम हुआ कि जिसे उसने कल पीटा था, वह तो छत्रपति शिवाजी के गुरु हैं। उसके तो होश ही उड़ गये।
शिवाजी ने समर्थ से कहा कि आप बताएं, इसे क्या दंड दिया जाए। किसान स्वामी के चरणों में गिर पड़ा और क्षमा माँगी। रामदास बोले कि इसने कोई गलत काम नहीं किया है। इसने एक तरह से हमारे मन की परीक्षा ही ली है। इसके मारने से मुझे यह तो पता चला कि कहीं मुझे यह अहंकार तो नहीं हो गया कि मैं एक राजा का गुरु हूँ, जिससे मुझे कोई मार नहीं सकता। अत: इसे सजा के बदले कोई कीमती उपहार देकर विदा कर दो। इसका यही दण्ड है। शिवाजी ने ऐसा ही किया।
अशोक मिश्र