बोधिवृक्ष
अशोक मिश्र
भारतीय संत परंपरा में कबीरदास का स्थान बहुत ऊंचा है। उन्होंने निपट निरक्षर होते हुए भी जो कुछ भी कहा, वह अद्वितीय है। वह व्यर्थ के कर्मकांड, अंध विश्वास, व्यक्ति पूजा, पाखंड और ढोंग के बहुत बड़े विरोधी थे। उन्होंने जहां कभी भी पाखंड देखा, उसका विरोध किया। हर धर्म में पाखंड करने वालों को उन्हें फटकार लगाई थी। यही कारण है कि कबीरदास की निष्कपट, बेलौस और सच्ची बातें कुछ लोगों को पसंद नहीं आती थी। वह साफ-साफ कहने के हिमायती थे। एक बार की बात है। उनके पास एक साधु आया। उन्होंने उसका उचित सत्कार किया। उस साधु ने कबीरदास से कहा कि तुम्हारी बातें तो बहुत अच्छी हैं, लेकिन एक बात बताइए, क्या कभी आपने वेदों का अध्ययन किया है? क्या आप हमारे कर्मकांडों पर विश्वास करके हैं? हमारे प्राचीन ऋषियों-मुनियों ने कहा है कि बिना वेदों का अध्ययन किए, ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता है। ज्ञान प्राप्त करने के लिए वेदों का अध्ययन करना आवश्यक है। यह सुनकर कबीरदास कुछ देर तक चुप रहे। उसके बाद उन्होंने उस साधु से कहा कि वेद और शास्त्र में तो केवल शब्द लिखे हुए हैं। उन शब्दों को कोई कितना समझ पाता है, यह व्यक्ति पर निर्भर करता है। लेकिन गुणी लोग जानते हैं कि सच्चा ज्ञान मन में छिपा हुआ है। मन में छिपे खजाने के आगे सारे ग्रंथ बेकार हैं। अगर तुम्हें सच्चाई और ज्ञान चाहिए, तो अपने मन के भीतर तलाशो। वह आपके मन में ही मिलेगा। उसे बाहर खोजने की जरूरत नहीं है। कबीरदास ने जब यह बात कही, तो उस साधु को कबीरदास की बात समझ में आ गई। उसने कहा कि सचमुच, ज्ञान और सच्चाई को बाहर खोजने की जरूरत ही नहीं है। यह तो मन में खोजने की चीज है।
ज्ञान बाहर नहीं, मन के भीतर मिलेगा
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