बोधिवृक्ष
अशोक मिश्र
अपने दादा प्रवरसेन की मृत्यु के बाद 335 में रुद्रसेन वाकाटक साम्राज्य की गद्दी पर बैठा था। वह अत्यंत प्रजापालक और दयालु था। उसको राजा बनाने में उसके नाना भारशिव भवनाथ का बहुत बड़ा हाथ माना जाता है। रुद्रसेन के ताऊ और चाचा राज्य में प्रांतीय शासकों के रूप में शासन करते थे। जब प्रवरसेन की मृत्यु हुई तो प्रवरसेन के बेटों यानी रुद्रसेन के ताऊ और चाचा ने स्वतंत्र होने का प्रयास किया। लेकिन रुद्रसेन ने अपने साम्राज्य से उन्हें अलग नहीं होने दिया। कहा जाता है कि वाकाटक साम्राज्य आज के उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, दक्षिणापथ और काठियावड़ तक फैला हुआ था। जब उसके नाना भारशिव भवनाथ की मृत्यु हो गई, तो रुद्रसेन ने उनके राज्य को भी अपने में मिला लिया। एक बार की बात है। रुद्रसेन एक संत से मिलने पहुंचा। संत उस समय तपस्या में लीन थे। रुद्रसेन ने थोड़ी देर इंतजार किया। जब संत की तपस्या भंग हुई, तो उन्होंने रुद्रसेन को बैठने को कहा। रुद्रसेन ने कहा कि मैं कभी-कभी अपने को बहुत हीन महसूस करने लगता हूं। मैंने अपने जीवन में न जाने कितनी बार मौत को साक्षात महसूस किया है। इसके बावजूद निर्बलों की सहायता और सेवा करने से नहीं चूका हूं। इसके बावजूद मुझे लगता है कि मेरा जीवन निरर्थक है। संत ने अपने यहां आए लोगों से बातचीत की। उन्हें विदा किया। इसके बाद वे रुद्रसेन से बात करते हुए बाहर आए। उन्होंने कहा कि चंद्रमा बहुत सुंदर है न। रुद्रसेन ने कहा कि हां, इसमें तो कोई शक नहीं है। तब संत बोले कि रात भर की यात्रा करने के बाद सूरज निकल आएगा। तब चंद्र सूरज के प्रकाश के आगे नहीं टिकेगा, लेकिन आज तक चंद्रमा ने इसको लेकर कोई शिकायत की। रुद्रसेन समझ गया कि उसका दूसरों से अपनी तुलना करना बेकार है। वह संतुष्ट होकर चला गया।
रुद्रसेन! किसी से अपनी तुलना उचित नहीं
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