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सिर साटे, रुख रहें तो भी सस्ता जाण

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बोधिवृक्ष
अशोक मिश्र
पेड़-पौधों को जीव मानने की परंपरा भारत में सदियों से चली आ रही है। यही वजह है कि पेड़, पौधों, नदियों और पर्यावरण को सुरक्षित रखने का प्रयास हमारे देश में सदियों से लोग करते आ रहे हैं। पेड़-पौधों को बचाने के लिए अगर जान भी देनी पड़े, तो हमारे पूर्व इससे कभी पीछे नहीं हटते थे। ऐसी ही एक महिला थीं अमृता बिश्नोई जिन्होंने खेजड़ी के पेड़ों को बचाने के लिए अपनी जान दे दी थी। वह राजस्थान की पहली पर्यावरणविद मानी जाती हैं। कहा जाता है कि सन 1730 में जोधपुर के महाराजा अभय सिंह ने एक महल बनवाना शुरू किया था। महल को बनाने में लगने वाले ईंटों और चूना को पकाने के लिए लकड़ी की जरूरत थी। उन्होंने अपने सैनिकों को खेजड़ी के पेड़ों को काटने की आज्ञा दे दी। उन दिनों राजस्थान के रेतीले इलाकों में भी हरियाली हुआ करती थी। राजस्थान में खेजड़ी के पेड़ बहुतायत में पाए जाते थे। महिलाएं खाना पकाने के लिए उसकी सूखी टहनियों का उपयोग करती थीं, लेकिन पेड़ नहीं काटती थीं। जोधपुर में रहने वाली अमृता बिश्नोई को जैसे ही यह पता चला कि महाराजा ने खेज़ड़ी के पेड़ काटने की आज्ञा दी है, वह तुरंत वहां पहुंची और पेड़ काटने से सैनिकों को मना किया। वह पेड़ से चिपककर खड़ी हो गईं। लेकिन एक सैनिक ने अपनी कुल्हाड़ी चला दी। अमृता का सिर कटकर नीचे गिर गया। बस फिर क्या था? अमृता बिश्नोई की तीनों बेटियों आसू, रत्ती और भागू और 363 बिश्नोई स्त्री-पुरुषों ने खेजड़ी के पेड़ों को बचाने के लिए अपना बलिदान दिया। महाराजा अभय सिंह को जब इसकी जानकारी मिली, तो वह भागे-भागे बिश्नोई गांव पहुंचे और सैनिकों के कृत्य के लिए माफी मांगी और भविष्य में पेड़ों को न काटने का वचन दिया।

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