बोधिवृक्ष
अशोक मिश्र
स्वामी रामानुजाचार्य दक्षिण भारत को प्रख्यात संत थे। उनका जन्म 1017 ईस्वी में तमिलनाडु के श्रीपेरुमबुदूर गांव में हुआ था। वह 130 साल तक जिए थे। वह विशिष्टद्वैत वेदांत के प्रवर्तक थे। उनका कहना था कि भक्ति का अर्थ पूजा-पाठ या कीर्तन-भजन नहीं बल्कि ध्यान करना या ईश्वर की प्रार्थना करना है। वह मानते थे कि सत्ता या परमसत के सम्बन्ध में तीन स्तर माने गये हैं -ब्रह्म अर्थात ईश्वर, चित अर्थात आत्म तत्व और अचित अर्थात प्रकृति तत्व। वस्तुत: ये चित अर्थात आत्म तत्त्व तथा अचित अर्थात प्रकृति तत्त्व ब्रह्म या ईश्वर से पृथक नहीं है बल्कि ये विशिष्ट रूप से ब्रह्म के ही दो स्वरूप हैं एवं ब्रह्म या ईश्वर पर ही आधारित हैं। एक बार की बात है। वह अपने शिष्यों के साथ कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक दलित महिला को देखकर उनके एक शिष्य ने आगे बढ़कर कहा, अरी बाई, तुम किनारे क्यों नहीं हट जाती हो। हम लोगों को निकल जाने दो। उस महिला ने भी जवाब देते हुए कहा, मैंने किसी का रास्ता तो नहीं रोका है। बगल से निकल जाइए न। असल में शिष्य को इस बात का डर था कि कहीं उस महिला की छाया न उन पर पड़ जाए। यदि ऐसा हुआ तो उन्हें दोबारा स्नान करना पड़ेगा। उस शिष्य ने महिला को डपटते हुए कहा कि तुमने जुबान चलाना भी सीख लिया है। देखती नहीं, हमारे साथ गुरु जी भी हैं। अगर तुम्हारी छाया पड़ गई तो हमें दोबारा स्नान करना पड़ेगा। यह सुनकर महिला हंस पड़ी। उसने कहा कि मैंने आप जैसे संतों से ही सुना था कि कण-कण में भगवान हैं, तो बताओ मैं कहां खड़ी हो जाऊं। यह सुनकर रामानुजाचार्य आगे आए और बोले, मां! हमें क्षमा कर दें। तुमने आज हमें सच्चा धर्म सिखा दिया। इसके बाद उन्होंने आजीवन छुआछूत के खिलाफ संघर्ष किया।
संत रामानुजाचार्य बोले, क्षमा कर दो, मां!
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