आजकल सोशल मीडिया का जमाना है। किसिम किसिम के मोबाइल फोन उपलब्ध हैं। सोशल मीडिया है, हम सबका बहुत बड़ा आभासी परिवार है। इन सबके बीच अगर गायब कुछ गायब है या गायब हो रही हैं तो वह हंै किताबें। किताबें हमारी अलमारियों से ही नहीं, हमारे जीवन से भी शनै: शनै अदृश्य होने की कगार पर हैं। नई पीढ़ी तो स्लेबस के अलावा कुछ पढ़ने में रुचि ही नहीं ले रही है। आज किसी बीस-बाइस साल के युवा से पूछ लीजिए कि अभी हाल में कौन सी किताब पढ़ी, तो यकीन मानिए, अस्सी फीसदी युवाओं का यही जवाब होगा कि उन्होंने कोई किताब नहीं पढ़ी।
किताबों की हमारे जीवन में बहुत उपयोगिता है। किताबें हमारे भीतर संस्कार पैदा करती हैं। वे सभ्य नागरिक होना सिखाती हैं। वे हमें अपने देश और समाज की जानकारियां देकर हमारे ज्ञान को समृद्ध करती हैं। आप किसी भी व्यक्ति से सोशल मीडिया पर डाली गई पोस्ट पढ़वाइए और किसी पुस्तक का कोई अंश। सोशल मीडिया पर पढ़ी गई पोस्ट का शायद ही कोई हिस्सा याद रहे, लेकिन पुस्तक का सारांश जरूर याद रहेगा। पुस्तकें हमें रोना सिखाती हैं, हंसना सिखाती हैं, जब हमें किसी किताब में किसी के बारे में कोई ऐसी जानकारी मिलती है, जो हमें द्रवित करती है, तो हमें रोना आ जाता है। मुंशी प्रेमचंद की कफन कहानी पढ़कर कौन भला घीसू और माधव की दशा पर गमगीन नहीं होगा?
कहा जाता है कि किताबें इंसान की सच्ची दोस्त होती हैं। किताबें हमारी सोच को विस्तार देती हैं। किताबें हमें जीने का सलीका सिखाती हैं। हमें समाज में कैसे रहना चाहिए, इसका ज्ञान देती हैं। जब हम कोई गीत सुनते हैं या गाते हैं, तो उन शब्दों का बहुत अधिक प्रभाव हम पर पड़ता है। जब हम किसी महापुरुष की जीवनी या उसके जीवन के प्रसंग पढ़ते या सुनते हैं, तो हमारे मन में उनके जैसा बनने का भाव पैदा होता है। सुख-दुख में किताबें पथप्रदर्शक की भूमिका में खड़ी मिलती हैं किताबें। किताबों को पढ़ने पर जो सुख मिलता है, वह अनिर्वचनीय है।
उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है। हमें अपने देश, समाज, गांव-जंवार और परिवार की जमीनी हकीकत से रूबरू कराती हैं किताबें। यदि साहित्य नहीं होता, तो शायद हमने सपने देखा, उन्हें साकार करना और खूबसूरत दुनिया का निर्माण करना नहीं सीखा होता। जो लोग किताबों का महत्व जानते हैं, वे वर्तमान युग को अंधा युग की संज्ञा देते हैं। इतिहास गवाह है कि जब भी किसी शासक ने किसी देश या राज्य पर अपना कब्जा करना चाहा है, तो सबसे पहले उसने ज्ञान के भंडार यानी पुस्तकालयों पर ही हमला बोला है।
एक प्रसिद्ध कहावत है कि किसी देश को गुलाम बनाना है, तो उस देश के साहित्य को नष्ट कर दो। उस देश के युवा मानसिक गुलाम बनकर रह जाएंगे। आज के युग में किसी देश पर हमला करके तो गुलाम नहीं बनाया जा सकता है, लेकिन साहित्य, इतिहास और भाषा बिगाड़कर उस देश के लोगों को मानसिक गुलाम जरूर बनाया जा सकता है। अपने हिसाब से इतिहास को तोड़ मरोड़कर पेश करना, युवाओं को मानसिक गुलाम बनाने की दिशा में उठाया गया कदम ही है।
-संजय मग्गू