इन दिनों लोकसभा चुनाव का प्रचार तो बड़ी जोर-शोर से चल रहा है। लेकिन महसूस नहीं हो रहा। हर बार की तरह आमजन चुनावी चकल्लस से दूर हैं। थोड़ी बहुत चुनावी चर्चा बाजार और दफ्तरों में तो देखने सुनने को मिल जाती है। बाकी सन्नाटा और गहरी खामोशी। लोकतंत्र के महापर्व महोत्सव को लेकर पहली बार पसरा सन्नाटा और गहरी खामोशी जनता के अंदर किसी गहरे दर्द की खबर दे रही है। जनता सुन समझ रही है, पर कुछ बोल नहीं रही है।
यह खामोशी और सन्नाटा तूफान से पहले की शान्ति की कहावत की पुष्टि करता नजर आ रहा है।
जनता के अंदर क्या चल रहा है? विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता और मीडिया डीकोड करने में लगे हैं, पर कोई जीत-हार को लेकर पक्के तौर पर दावा करने की स्थिति में नहीं है। विपक्ष है तो, पर वह अनुपस्थित सा नजर आ रहा है। एक मनोवैज्ञानिक तथ्य यह है कि हद से ज्यादा परेशान आदमी चुप रहने में अपनी भलाई समझता है। मतलब साफ है कि जनता अंदर से परेशान है। उसे लगता है बहसबाजी में कुछ नहीं रखा है, जो करना है वोट से करना है। सवाल यह है कि जनता का वह कौन सा दर्द और परेशानी है जो अभिव्यक्त नहीं हो रहा है।
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दर्द है, परेशानी है, पर जनता बताने को तैयार नहीं है। जनता की खामोशी के पीछे जो दर्द है, तो उसको समझने के लिए उसके आर्थिक हालात की गहराई से पड़ताल करनी होगी। कोराना काल में ध्वस्त हो चुके रोजी-रोजगार के दर्द से पीछा नहीं छूटा था कि सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती महंगाई ने पस्त कर दिया। बच्चों की महंगी पढ़ाई और महंगा इलाज, घाटे का सौदा साबित हो रही खेती किसानी, भस्मासुर की तरह मुंह बाये खड़े बेरोजगारों की लंबी कतार। इन सवालों से मुंह फेरे खड़ी सरकार के उपेक्षित व्यवहार से जनता अंदर से दुखी है। जनता के बुनियादी सवालों से सरकार अपनी जवाबदेही से बचते हुए गैर जरूरी मुद्दों से ध्यान भटकाने में लगी है। जनता की यह गहरी खामोशी गंभीर संदेश दे रही है। इस बार चुनावी ऊंट किस करवट बैठेगा, इसे लेकर सत्ता और विपक्ष दोनों ही सहमे हैं। जीत के दावे दोनों ओर से किए जा रहे हैं पर संशय दोनों ओर बना हुआ है।
चुनाव में पसरी यह खामोशी सत्ता पक्ष और विपक्ष को अन्दर तक साल रही है। पक्ष-विपक्ष दोनों ही जनता का मुंह ताक रहे हैं और उसके मौन भाव को पढ़ने की कवायद करने मे जुटे हैं। जनता कुछ बोले इसके लिए भाषणों के माध्यम से ठहरे हुए पानी मे कंकड़ मारकर जनता के मन में हलचल पैदा कर भावाभिव्यक्ति को समझना चाहते हैं। चुनावी चौसर पर सियासत के पासे ठीक से पड़ नहीं पा रहे हैं। जो कुछ बोल रहा, वह मीडिया बोल रहा है और जनता मीडिया के खेल को भी पैनी और गहरी नजर से देख समझ रही है।
कुल जमा सबकी साख दांव पर है। साख सत्ता पक्ष की हो या विपक्ष की, प्रत्याशी की हो या दल की या फिर गठबंधनों की, साख ईवीएम की हो या चुनाव आयोग की, सबके सामने सवाल हैं। लोकतंत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही से जुड़े सवाल जनता को इस बार अंदर तक मथ रहे हैं। जनता के अंदर लोकतंत्र में साख से जुड़े सवालों को लेकर जो मन्थन चल रहा उससे शुचिता, पारदर्शिता, जवाबदेही जैसे रत्न प्राप्त होंगे? यह सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न है।
चुनाव घोषणापत्रों में वादों के अंबार खड़े हैं। वादों पर लुटी पिटी जनता दूध की जली हुई है, अब वह वादों की छाछ को फूंक मारकर नहीं बल्कि तसल्ली से सामने रख कर ठंडा करने में लगी हुई है। यही बात चुनावी सियासतदां को बेचैन किये हुए हैं। लोकलुभावन वादों से दूर जनता की हकीकत यह है कि फटी जेब लिए घूम रहे लोग अपनी खामोशी से सियासत को गंभीर संदेश दे रहे है कि भूखे भजन न होय गुपाला, यह लेव अपनी कंठी माला। अदम गोंडवी की भाषा में कहें तों चुनावी दौर में जनता की खामोशी का फलसफा कुछ यूं है तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है।
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
-विवेक दत्त मथुरिया
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