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अपने ही गले की फांस बन गया क्लर्क आंदोलन

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निसंदेह वेतनमान बढ़ाने की मांग को लेकर प्रदेश भर के लिपिकों द्वारा चलाया जा रहा आंदोलन अब आंदोलन चलाने वालों के ही गले की फांस बनता दिखाई दे रहा है। कई दौर की वार्ता के बाद एक बात तो सरकार ने साफ कर ही दी है कि लिपिक जो मांग रहे हैं, वह तो किसी तरह नहीं दिया जाएगा। हाँ वेतन विसंगति सरकार दूर करने के लिए तैयार है। बस पेच यहीं फंस गया है। उधर जैसे-जैसे यह आंदोलन आगे बढ़ रहा है, वैसे-वैसे ही जेबीटी टीचर भी 39900 की मांग करने लगे हैं। जिस संदर्भ में पिछले दिनों एक नोटिफिकेशन जारी हुआ था,संदर्भ उसी को बनाया जा रहा है। उधर डिप्लोमा इंजीनियर भी वेतन बढ़ाने की मांग को लेकर आर-पार के मूड में दिखाई दे रहे हैं और कलम छोड़ हड़ताल का एलान कर चुके हैं। वैसे जितनी जल्दी पटवारियों ने वेतन के मामले में बाजी मारी,वह सबके लिए प्रेरणा भी है और अखर भी रही है।

खैर, हमारा साफ मानना यह है कि निस्संदेह वेतन विसंगतियां दूर होनी ही चाहिए और जिसका जो भी वाजिब हक है, वह उस कैटेगरी को मिलना चाहिए। इस संदर्भ में प्रति व्यक्ति आय का ध्यान रखा जाना चाहिए।हम यह भी मानते हैं कि सरकार को यह कार्य करना भी चाहिए ताकि हड़ताल जैसी बात की नौबत ना आए। ऐन चुनाव से कुछ महीनों पहले कुछ लोग आंदोलन के मूड में क्यों आ जाते हैं? यह बेहद सोचने और चिंता करने वाली बात है। पूरे पांच साल तो ऐसे लोग बिल्कुल भी नहीं बोलते और फिर ऐन चुनावों से पहले अपनी मांगों का राग अलापने लगते हैं।

चाहे कोई भी हो, यह प्रक्रिया ठीक नहीं लगती। इसमें कहीं ना कहीं सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति ही नजर आती है, यूनियनबाजी नहीं। हां, यदि लंबे समय से आप संघर्षरत हैं और आपका संघर्ष निरंतरता में जारी है तो चुनावों से थोड़ा पहले उसे तेज और धारदार जरूर किया जा सकता है। वोट बैंक का मसला किसी भी सरकार के लिए बेहद महत्वपूर्ण होता है,यहां तक कि विपक्ष के लिए भी।

खैर,अब तो मुख्य सचिव की ओर से भी लिपिकों की हड़ताल को लेकर सूचनाएं मांग ली गई है। इस पूरे मामले में मजेदार बात यह है कि जिस बैनर तले आंदोलन किया जा रहा है, वह कोई बहुत ज्यादा पुरानी और बहुत ज्यादा सक्रिय यूनियन नहीं रही है। बस जुम्मा-जुम्मा पिछले एक दो साल में फील्ड में उतरी है। इतने बड़े एक्शन की कॉल दे दी क्योंकि यह एक ऐसे संघ से संबंधित है, जिस पर सरकार समर्थित संघ होने का टैग चस्पा है।

सवाल यह है कि आंदोलन की एक धार हुआ करती है। वह है जिसके खिलाफ आंदोलन किया जाए, उसे जमकर कोसा जाए क्योंकि वह नहीं मान रहे, तभी तो आंदोलन को मजबूर हुआ जा रहा है वरना क्या जरूरत थी? मगर इस आंदोलन में ऐसा कुछ नहीं था जिससे वह बैनर भी खुश हुआ जिसके तले यह आंदोलन हो रहा था।

अब जिस तरह से परिस्थितियां बदल रही हैं, उससे यह आंदोलन उसी बैनर के गले की फांस बनता नजर आ रहा है। वो लोग जिन्हें लिपिक कहा जाता है, उन्हें यूनियन और यूनियन की विचारधारा की कोई अच्छी-खासी समझ नहीं है। उन्हें तो सिर्फ 35400 से मतलब है। इसके अलावा कुछ नहीं और ऊपर नीचे भी कुछ नहीं। अब जिस तरह से हालात बदल रहे हैं। आम लिपिक 35400 से नीचे एक कदम भी मानने को तैयार नहीं है और सरकार 35400 देने के लिए तैयार नहीं है। उधर बैनर सरकार समर्थित संघ का है। मतलब साफ है कि दोनों ही मुश्किल की घड़ी में फंस गए हैं जबकि यह भी तथ्य है कि जिस पर सरकार विरोधी यूनियन होने का टैग चस्पा है, उन्होंने एक लंबे चले आंदोलन के बाद इस वेतन की मांग को बाकायदा विधानसभा में पास करवा चुका है।

अब सिर्फ नोटिफिकेशन करना ही बाकी है। यह कौन करेगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। इतना जरूर है कि सरकार को चलाने में लिपिकों का बहुत बड़ा हाथ होता है, वहीं यह भी तथ्य है कि आम जनता में लिपिकों की छवि कोई बहुत ज्यादा अच्छी नहीं है। खासकर जिन लोगों का लिपिक वर्ग से वास्ता पड़ा है,उनके जेहन में तो कतई नहीं। वैसे जिस पर सरकार विरोधी और वामपंथी संगठन होने का टैग है,उसका उपलब्धियों भरा एक लंबा इतिहास भी है।

कृष्ण कुमार निर्माण

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