– सोनम लववंशी
समाज में भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है। यह सोच, संस्कार और व्यवस्था का दर्पण होती है। जब भाषा में भेदभाव और रूढ़िवादिता समाहित हो जाती है, तो वह समाज की मानसिकता को दर्शाती है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा की बात हो तो उनके शारीरिक, मानसिक और आर्थिक शोषण पर ही चर्चा होती है, लेकिन भाषाई हिंसा पर किसी का ध्यान नहीं जाता है। अभी हाल ही में जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट का हालिया फैसला, जिसमें तलाकशुदा महिलाओं को ‘डाइवोर्सी’ कहने पर रोक लगाई गई है, इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। विडंबना देखिए 21वीं सदी में हमें यह बताने की जरूरत पड़ रही है कि महिलाओं को उनके नाम से पहचाना जाए, न कि उनकी वैवाहिक स्थिति से? लेकिन सच तो यही है कि इस मामले में अदालत को दखल देना पड़ा, क्योंकि समाज की भाषा अब भी ‘पति-परमेश्वर’ युग में ही अटकी हुई है। दरअसल, यह शब्दों का खेल नहीं, मानसिकता की लुका-छिपी है। पुरुष अगर शादीशुदा है तो जिम्मेदार, अविवाहित है तो सफल और फोकस्ड, विधुर है तो दुखियारा और तलाकशुदा है तो आज़ाद पंछी। लेकिन जब बात महिला की हो अविवाहित होने पर उसे बेचारी कहकर संबोधित किया जाता है। शादीशुदा है तो सुहागिन देवी और विधवा है तो अबला, तलाकशुदा है तो डाइवोर्सी। यानी महिलाओं पर कटाक्ष करना समाज का जन्मसिद्ध अधिकार बन गया है। अब भला कोई बताए, महिला की असली पहचान उसकी वैवाहिक स्थिति है या उसकी उपलब्धियाँ? क्या वह डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, लेखक, नेता या उद्यमी नहीं हो सकती? या यह सब सिर्फ एक फुटनोट है, असली परिचय तो उसकी शादी से तय होगा? अदालत ने सही कहा कि तलाकशुदा महिला को केवल उसकी वैवाहिक स्थिति से पहचान देना पूरी तरह अनुचित है। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या इस फैसले के बाद सरकारी दफ्तरों में फॉर्म भरते समय महिलाओं से ‘मिस/मिसेज/डाइवोर्सी’ पूछना बंद होगा? या यह भेदभाव सिर्फ अदालत की चारदीवारी तक ही सीमित रहेगा?
साल 2023 में सुप्रीम कोर्ट को एक ‘हैंडबुक’ जारी करनी पड़ी कि ‘व्यभिचारी’, ‘बदचलन’, ‘धोखेबाज’, ‘आवारा’ जैसे शब्द महिलाओं के लिए इस्तेमाल नहीं किए जाने चाहिए, तो यह हमारी गहरी जड़ें जमाए हुई पितृसत्तात्मक सोच का आइना था। क्या कभी किसी पुरुष को ‘चरित्रहीन’ या कुलटा कहने की परंपरा रही है? नहीं, क्योंकि पुरुष की पहचान उसके काम से होती है और महिला की उसके संबंधों से। सच तो यह है कि समाज को महिलाओं के जीवन पर लेबल लगाने का शौक है। यह बहस केवल ‘डाइवोर्सी’ शब्द तक सीमित नहीं है। यदि हम अपने आसपास की भाषा पर ध्यान दें, तो हमें महसूस होगा कि महिलाओं के लिए शब्दावली अक्सर पुरुषों की तुलना में अधिक निर्णायक और मूल्यांकनात्मक होती है। किसी पुरुष के बारे में कहने के लिए ‘महिला-प्रधान’ जैसी कोई संज्ञा नहीं होती, लेकिन ‘पुरुष-प्रधान’ समाज में महिलाओं को जब भी किसी ऊँचे पद पर देखा जाता है, तो ‘महिला वैज्ञानिक’, ‘महिला नेता’, ‘महिला पुलिस अधिकारी’ जैसे विशेषण जोड़ दिए जाते हैं। यह इस बात को दर्शाता है कि हम महिलाओं को अभी भी अपवाद के रूप में देखते हैं, मुख्यधारा का हिस्सा नहीं।
वैसे, यह समस्या सिर्फ भाषा तक सीमित नहीं है। ऑफिस में ज्वाइनिंग फॉर्म में ‘पति का नाम’ अनिवार्य, लेकिन ‘पत्नी का नाम’ पूछना वैकल्पिक। और हद तो तब हो जाती है जब पासपोर्ट बनवाते समय महिला से पूछा जाता है—‘शादी हुई या नहीं?’ आखिर इससे किसी की नागरिकता तय होती है क्या? अदालत ने जो कहा, वह सही है। महिलाओं की पहचान उनकी काबिलियत और नाम से होनी चाहिए, न कि उनके वैवाहिक दर्जे से। लेकिन असली बदलाव तब आएगा जब यह सोच हर सरकारी दफ्तर, हर फॉर्म, हर अखबार और हर बातचीत में झलकेगी। जब समाज महिलाओं को सिर्फ उनके नाम और काम से जानेगा, न कि उनकी ‘शादी की स्थिति’ से। जब ‘डाइवोर्सी’ एक पहचान नहीं, बल्कि बीते कल की एक घटना भर रह जाएगी। और जब यह सवाल उठेगा कि महिला कौन है, तो जवाब होगा—एक इंसान, और कुछ नहीं।
महिला की पहचान नाम से होगी या ‘तलाकशुदा’ से?
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