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बेमानी है अब ट्रंप को अपना दोस्त समझना

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अशोक मिश्र
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी घोषणाओं से, अपने रवैये से एक बात तो साफ कर दिया है कि वह भविष्य में संकट पड़ने पर किसी भी देश की बिना कुछ लिए दिए धेले भर की मदद करने वाले नहीं हैं। उनके लिए अमेरिका फर्स्ट है। इसके लिए वे वह सब कुछ करेंगे जिससे अमेरिका का भला हो। ठीक बात भी है। अगर किसी देश का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री अपने देश का भला चाहता है, तो इसमें बुरा क्या है? सबको अपने देश से प्यार होता है और अपना और अपने देश का हित सबसे पहले देखता है। ट्रंप की इस बात और रवैये से उन देशों को धक्का लग सकता है, जो अब तक अमेरिका से मदद, ऋण या युद्ध काल में हथियारों की मदद लेते रहे हैं। नाटो संधि की वजह से अपने दुश्मन को अमेरिका का दुश्मन मानते रहे हैं। ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति बनने के बाद सब कुछ बदल गया है। दुनिया में अब एक नए सिरे से खेमे बंदी शुरू हो गई है। ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति बनने से पहले जो अमेरिका रूस का प्रतिद्वंद्वी हुआ करता था, वह अब दोस्त होने जा रहा है। चीन के खिलाफ कसता शिकंजा अब बहुत हद तक ढीला हो चुका है। बाइडेन काल में जो अमेरिका चीन के खिलाफ ताइवान की हर संभव मदद करने को तैयार था, वहीं अब ट्रंप का आरोप है कि ताइवान की चिप इंडस्ट्री अमेरिका को नुकसान पहुंचा रही है। ताइवान के लिए अब चीन से टकराहट नहीं मोल लेने वाले हैं ट्रंप।
ट्रंप को अपना हितैषी, दोस्त या पक्षधर समझने वाले लोगों और देशों के लिए एक साफ संदेश है कि ट्रंप सिर्फअपने अलावा किसी के नहीं हैं। जेनेटिक आधार पर कहा जाता है कि अमेरिका और यूरोपवासियों का डीएनए एक है। यदि समाज शास्त्र की भाषा में कहा जाए तो ट्रंप के साथ-साथ अमेरिका के गोरे लोग यूरोप के गोरे लोगों के रक्त संबंधी हैं। लेकिन जब ट्रंप यूरोपीय देशों के नहीं हुए, तो क्या वह भारत, चीन, पाकिस्तान, रूस, जापान के हो पाएंगे? कतई नहीं। अपने दूसरे शासनकाल की शुरुआत में ही ट्रंप ने पूरी दुनिया का समीकरण ही बदल दिया है। नतीजा यह हो रहा है कि कल तक जो दुश्मन थे, आज वह दोस्त हो रहे हैं। दोस्त दुश्मन हो रहे हैं। कल तक ट्रंप को दोस्त कहने वाले पीएम मोदी भी शायद उतने मुक्त भाव से ट्रंप को अपना न कह पाएं। भारत ने वैसे तो अब तक बड़े संतुलित तरीके से वैश्विक मंच पर अपनी बात रखी है, लेकिन यह भारत के लिए भी एक संकेत है कि ट्रंप से पुरानी दोस्ती और साझेदारी भविष्य में काम आने वाली नहीं है। निस्संदेह मोदी और पुतिन के रिश्ते प्रगाढ़ हैं। लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि अब ट्ंप और पुतिन एक ही पाले में खड़े नजर आ रहे हैं। ट्रंप चीन के प्रति नरम रवैया अपना रहे हैं। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की जिस अंदाज में ट्रंप प्रशंसा कर रहे हैं, वह भारत के लिए खटकने वाला है। पाकिस्तान पर चीन का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा है। साउथ पोल की ताकतवर देश माना जाने वाला ब्राजील और साउथ अफ्रीका की निकटता चीन के साथ काफी हद तक बढ़ चुकी है। रूस पहले ही चीन से मित्रता कर चुका है।
अगर ट्रंप और पुतिन के चरित्र को समझने की कोशिश की जाए तो दोनों में एक साम्यता जरूर नजर आती है और वह उन्नीसवीं सदी के साम्राज्यवादी शासकों की तरह सोच है। दोनों एक तरह से अधिनायक वादी हैं। पुतिन को अपना विरोध स्वीकार्य नहीं है। उन पर अपनी आलोचना करने वालों को प्रताड़ित करने और हत्या करवा देने के आरोप हैं, तो ट्रंप को भी अपनी किसी बात का विरोध पसंद नहीं है। ट्रंप इन दिनों सिर्फएलन मस्क की बात सुन रहे हैं बाकि उन्हें किसी की बात नहीं सुननी है। बिना किसी की सुने उन्होंने अमेरिका के लाखों लोगों को नौकरी से निकाल दिया। अब भी निकालते जा रहे हैं। दूसरे देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथभी रूखा व्यवहार कर रहे हैं।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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