भूकंप, ज्वालामुखी, क्लाउड बर्स्ट कहें या बादल फटना या सुनामी आदि ऐसी आपदाएं हैं जिनका पूवार्नुमान असंभव है। विज्ञान और तकनीक की चहुंमुखी प्रगति के बावजूद इन आपदाओं के बारे में पूर्व चेतावनी तंत्र विकसित करने में हम आज भी नाकाम हैं। यही नहीं, हम इनका सही समय का निर्धारण भी कर पाने में नाकाम हैं जिससे इन आपदाओं से समय रहते बचाव के प्रयास भी कर सकें।
बीते दिनों उत्तर भारत ने चार भूकंपों का सामना किया। पहला तीन अक्टूबर को अफगानिस्तान के हेरात प्रांत में आए भूकंप ने दिल्ली एनसीआर में दहशत बरपा की, दूसरा 15 अक्टूबर को जिसका केंद्र फरीदाबाद से नौ किमी पूर्व और दिल्ली से तीस किमी दक्षिण पूर्व में था, तीसरा नेपाल के सुदूर पश्चिम प्रांत में 16 अक्टूबर को और चौथा 22 अक्टूबर की सुबह 7 बजकर 39 मिनट पर नेपाल के ही धाडिंग जिले में आया। इनमें 22 अक्टूबर को नेपाल में 6.1 तीव्रता के आए भूकंप ने नेपाल के बागमती और गंडकी प्रांत के दूसरे जिलों सहित बिहार तक की धरती को कंपकपा दिया।
राष्ट्रीय भूकंप निगरानी और अनुसंधान केंद्र की मानें तो भूकंप के झटकों को दिल्ली एनसीआर तक महसूस किया गया। यूरोपीय भूकंप विज्ञान केंद्र के मुताबिक इसका केंद्र धाडिंग जिले के 13 किमी नीचे रहा। संतोष की बात यह रही कि इसमें किसी के घायल होने की खबर नहीं है। इससे अब यह लगने लगा है कि यह कहीं इस क्षेत्र में आने वाले दिनों में किसी बड़े भूकंप का संकेत तो नहीं हैं। हालात तो इस आशंका को बल प्रदान करते दिखाई देते हैं। गौरतलब है कि 2015 में नेपाल में 7.8 तीव्रता के आए भूकंप में लगभग नौ हजार लोगों की मौत हो गई थी। इस विनाशकारी भूकंप ने हजारों जानें ही नहीं ली, बल्कि उसने इस हिमालयी क्षेत्र का भूगोल ही बिगाड़ दिया था। भूकंप के बाद कैंब्रिज यूनीवर्सिटी के टैक्टोनिक विशेषज्ञ जेम्स जैक्सन ने खुलासा किया था कि भूकंप के बाद काठमांडू के नीचे की धरती तीन मीटर यानी दस फीट दक्षिण की ओर खिसक गई थी। यह भूकंप बीस बड़े परमाणु बमों की शक्ति के बराबर था।
यह बात दीगर है कि इस भूकंप से दुनिया की सबसे बड़ी चोटी माउंट एवरेस्ट के भूगोल में कोई बदलाव नहीं आया। इस बारे में एडीलेड यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिक प्रोफेसर सैंडी स्टेसी के मुताबिक इस दौरान इतना जरूर हुआ है कि हिमालय की वजह से दबाव के चलते उत्तर की ओर बढ़ रही भारतीय टैक्टोनिक प्लेट्स जिसे यूरेशियन प्लेट्स भी कहा जाता है, वह उत्तर पूर्व की तरफ 10 डिग्री नीचे चली गई है। कोलंबिया यूनीवर्सिटी के भूगर्भ विज्ञानी प्रोफेसर कोलिन स्टार्क के मुताबिक इस भूकंप के दौरान नेपाल की सीमा से लगे बिहार में धरती की सतह की ऊपरी चट्टानें जो चूना पत्थर की हैं, चंद सेकेंड में ही उत्तर दिशा की ओर खिसक कर नेपाल के नीचे समा गईं।
दक्षिण एशिया में यानी भारत, नेपाल और पाकिस्तान में सबसे ज्यादा खतरा हिमालयी इलाकों में है। कारण हिमालय का निर्माण ही करीब चार करोड़ साल पहले इंडियन टैक्टोनिक प्लेट और यूरेशियन प्लेट का टकराव था जो आज भी जारी है। उसके चलते हिमालय एक सेंटीमीटर हर साल ऊंचा हो जाता है। यहां भूगर्भ में इंडियन टैक्टोनिक प्लेट और तिब्बतन प्लेट आपस में टकराती रहती हैं। बीते 125 सालों में आए आठ बड़े भूकंप में से छह तो इसी इलाके में आए हैं। यदि देश में पिछले 125 साल के आंकडे़ देखने से पता चलता है कि किसी भी दिन देश में कहीं भी विनाशकारी भूकंप से भयावह तबाही की आशंका को नकारा नहीं जा सकता। क्योंकि देश का 59 फीसदी से ज्यादा हिस्सा भूकंप की उच्च संभावना वाले चार जोन में शामिल है। देश की राजधानी क्षेत्र जोन 4 में शामिल है। इसमें दिल्ली के अलावा हरियाणा और उत्तर प्रदेश के कई इलाके आते हैं।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
ज्ञानेंद्र रावत -लेखक
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