आधुनिक सक्रियता के बीच सनातन मूल्यों, शालीनता और नैतिकता की पुनर्स्थापना को प्रतिबद्ध स्त्री
डॉ. योगिता जोशी
वर्तमान युग को परिवर्तन का युग कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। विज्ञान, तकनीक, राजनीति, साहित्य और अंतरिक्ष के क्षेत्र में अद्भुत विकास हो रहा है। विशेष रूप से स्त्री चेतना ने भी इस युग में नए-नए आयाम गढ़े हैं। वह अब केवल घर-आँगन तक सीमित नहीं रही, बल्कि उसने आकाश की ऊँचाइयों से लेकर सृजन की गहराइयों तक अपनी अमिट छाप छोड़ी है।
इन दिनों स्त्री विमर्श का बूम है।यानी धूम है।वैसे लेखन लेखन होता है।उसे स्त्री-पुरुष के खांचे में बांटना उचित नहीं।फिर भी जब बुनियादी विभाजन प्रकृति ने ही कर दिया है, तब कुछ अलहदा विमर्श हो जाये, तो इसे अन्यथा भी नहीं लिया जाना चाहिए।हमारे प्राचीन साहित्य में, वेद-पुरानों में स्त्री के सम्मान को रेखांकित करने वाली अनेक कथाएं दर्ज हैं।कहीं भी स्त्री का अपमान नहीं है।’यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ कहकर हमने स्त्री को देवी बनाया दिया।दुर्गा, सरस्वती, काली, सीता आदि देवियाँ पूजनीय है।लेकिन धीरे-धीरे स्त्री के प्रति मोह भंग-सा भी नजर आता है।स्त्री कब हमारे लिये हाशिये की चीज हो गई, पता नहीं चला।और आज तो जो मानसिकता लोकव्यापी है, उसे हम झेल ही रहे हैं कि पढ़ा-लिखा समाज तक यह देखने की कोशिश करता है कि गर्भ में पलने वाला भ्रूण स्त्री है या पुरुष।इस मानसिकता के कारण ही स्त्री के प्रति दोयम दर्जे का व्यवहार होने लगा।स्त्री होना ही मानो पाप हो गया।इस मानसिकता के खिलाफ बगावत होनी ही थी।इसीलिये स्त्री-विमर्श कि शुरूआत में स्त्री की अस्मिता और उसकी गरिमा को रेखांकित करने वाली रचनाएँ शुरू हुई ताकि स्त्री के खिलाफ जो मानसिकता बन रही है, उसमें बदलाव लाया जा सके।स्त्री-लेखन में सक्रिय लोगों ने इस दिशा में सार्थक काम किया।उनके लेखन ने वातावरण बनाने का काम किया, और यही कारण है कि नयी पीढ़ी की युवा-स्त्री अब अपने व्यक्तित्व को लेकर ज्यादा सजग है। परंतु जब हम स्त्री जागरण की चर्चा करते हैं, तो केवल उपलब्धियों की गाथा गाने से बात पूरी नहीं होती। उस चेतना की दिशा, उसकी गुणवत्ता और उसका आदर्श क्या होगा, यह प्रश्न सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। क्या यह चेतना केवल भौतिक उन्नति, अधिकारों के विस्तार और प्रतिस्पर्धा की होड़ में ही सिमट कर रह जाएगी? या फिर यह सनातन मूल्यों, शालीनता, नैतिकता और मयार्दा के साथ संतुलित रूप में समाज को नई दिशा देगी? यही सबसे बड़ी चुनौती है, जो आज स्त्री के हर क्षेत्र में सक्रिय होने के साथ उभरकर सामने खड़ी है।
आज जब हम भारत की महिला वैज्ञानिकों और अंतरिक्ष यात्रियों के योगदान पर गर्व करते हैं, तो यह ध्यान रखना आवश्यक है कि यह केवल तकनीकी उपलब्धि नहीं, बल्कि सांस्कृतिक चेतना का भी विस्तार है। अंतरिक्ष केवल अनुसंधान का क्षेत्र नहीं, अपितु सनातन दृष्टि में यह ब्रह्मांडीय ऊर्जा के रहस्यों की खोज का माध्यम भी है।सनातन संस्कृति में ह्यपृथ्वीह्ण, ह्यआकाशह्ण, ह्यअंतरिक्षह्ण केवल भौतिक संरचनाएँ नहीं हैं, ये चेतना के विभिन्न स्तर हैं। इस दृष्टि से जब भारतीय स्त्री इस अनंत आकाश में शोध करती है, तो उसके लिए यह एक आध्यात्मिक यात्रा भी हो सकती है। स्त्री के लिए विज्ञान केवल तकनीकी उपलब्धि नहीं, बल्कि मानवता की सेवा का माध्यम है।अंतरिक्ष में जाते हुए भी यदि जड़ों से जुड़ाव बना रहे, तो यह यात्रा केवल बाहर की नहीं, भीतर की भी होगी। इससे आधुनिकता और सनातनता का सुंदर समन्वय संभव है । आज स्त्रियाँ राजनीति में निर्णायक भूमिकाओं में हैं। यह निस्संदेह एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। किंतु यहाँ भी यह सोचने की आवश्यकता है कि राजनीति केवल शक्ति-साधन का नाम न बन जाए। सनातन परंपरा में राजनीति का उद्देश्य सत्ता प्राप्ति न होकर, लोकमंगल और धर्म की स्थापना रहा है।
यदि राजनीति में आई स्त्रियाँ भी केवल पद, अधिकार और सत्ता के मोह में उलझकर मूल्यों को तिलांजलि देने लगें, तो यह चेतना की हार होगी। आवश्यकता इस बात की है कि राजनीति में स्त्री अपने स्वाभाविक गुण—करुणा, सेवा, त्याग, न्यायप्रियता और साहस—को आधार बनाकर नेतृत्व करे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत की प्राचीन परंपरा में गार्गी, अपाला, मैत्रेयी जैसी विदुषी स्त्रियाँ वैदिक सभाओं में संवाद करती थीं, प्रश्न उठाती थीं, और धर्म आधारित चिंतन का संचालन करती थीं। द्रौपदी का उदाहरण हमारे सामने है, जिसने अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाई, परंतु अपने आचरण की मर्यादा को कभी नहीं तोड़ा। आज की राजनीतिक स्त्री के लिए ये चरित्र पथ-प्रदर्शक बन सकते हैं।
स्त्री-साहित्य आज जिस तेजी से उभर रहा है, वह एक सृजनशील युग का संकेत है। लेकिन इसके साथ ही एक बड़ी चुनौती यह है कि कहीं स्त्री लेखन केवल विक्षोभ, आक्रोश और उच्छृंखलता की अभिव्यक्ति तक सीमित न रह जाए। साहित्य केवल विद्रोह का माध्यम नहीं, बल्कि सृजन की साधना है।आज के स्त्री विमर्श में कई बार शालीनता और सौम्यता की उपेक्षा दिखाई देती है। भाषा की मयार्दा टूटती है, विषय की गरिमा क्षीण होती है, और चरित्रों का प्रस्तुतीकरण अश्लील हो उठता है। सनातन संस्कृति को गहराई से देखें तो साहित्य का मूल उद्देश्य समाज में माधुर्य, करुणा, नैतिकता, और उच्च विचारों का प्रसार करना है।
मीरा का भजन, विद्योत्मा की वाणी, अक्का महादेवी की साधना, महादेवी वर्मा की करुणा और सुभद्रा कुमारी चौहान की चेतना भारतीय स्त्री साहित्य की महान परंपरा के स्तंभ हैं। इन रचनाकारों ने कभी अपनी अस्मिता की लड़ाई अश्लील भाषा या विद्वेष से नहीं लड़ी, बल्कि सौंदर्य, शालीनता और साधना के माध्यम से लड़ी। आज की लेखिकाओं के लिए यह विशेष विचारणीय है कि वे अपनी रचनाओं में शिष्टता, स्नेह, माधुर्य, और समाजोपयोगी दृष्टि को न भूलें। साहित्य वही सार्थक होगा, जो सनातन आदर्शों का संवाहक बन सके। मुझे लगता है कि अब जो नया स्त्री लेखन आये वो परम्परा और जीवन के नैतिक मूल्यों को बचाए और आधुनिकता की ओर उन्मुख हो।आधुनिक होने का मतलब निर्लज्ज होना नहीं होता ।आधुनिक होने का मतलब पुरानी कुप्रथाओं को त्यागना है।जैसे हिंसा परम्परा रही है जो गलत है।अहिंसक होना आधुनिकता है।बलि प्रथा, पर्दाप्रथा, बाल विवाह जैसी कुप्रथाएँ बंद हो।देवदासी जैसी प्रथाएं बंद हों। कल अगर कहीं गलत होता था, तो उसे हम आज भी दुहराते चलें, यह बुद्धिमानी नहीं है। औरत और नैतिकता एक ही सिक्के के दो पहलू रहे हैं।और ये बने रहने चाहिए।इसके बावजूद और आगे बढ़ सकती है।वह अंतरिक्ष तक जा पहुची है। वह सामाजिक जीवन में अनेक पदों को सुशोभित कर रही है।यह उसकी अपनी प्रतिभा के बूते हुआ है।यही समझने की जरुरत है ।
अब तो फिल्मों के माध्यम से भी हीरोइनों को गलियाँ देते दिखाया जाता है।इसका असर नई लड़कियों पर भी पड़ेगा और वे भी गलियाँ बकने में संकोच नहीं करेंगी। करीना कपूर या विद्या बालन गाली दे सकती है, तो मैं क्यों नहीं? यह मानसिकता पतन कि ओर ले जायेगी।हमारा स्त्री लेखन इस सोच के विरुद्ध कलम चलाये तो समाज के नैतिक मूल्य बचे रहेंगे, वरना जो रंग-ढंग दीख रहे है, उससे तो आने वाले अराजक समय की केवल कल्पना ही की जा सकती है।
ये तमाम जरूरी बातें हैं, जिन पर स्त्री-विमर्श करते हुए या स्त्री लेखन को विचार करना चाहिए।लेखक का काम यही है कि जो कुछ भी है उससे बेहतर वातावरण बनाए।साहित्य का मतलब ही है सबके हित को ले कर चले।सबका हित बेहतर जीवन मूल्यों में है।उत्थान में है, पतन में नहीं।स्त्री लेखन अगर मूल्यों को स्थापित करे, स्त्री को सही दिशा में जागृत कर सके, तो वह स्वागतेय है।वह समलैंगिगता को, व्यभिचार को, या किसी भी किस्म की अराजकता को महिमामंडित न करे, और समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना की पुरजोर कोशिश करे।तभी स्त्री विमर्श को और अधिक ऊंचाई प्राप्त होगी।
आधुनिकता अपनाना आवश्यक है, किंतु अंधानुकरण आत्मघात है। स्त्री चेतना के विकास का उद्देश्य केवल बराबरी की होड़ नहीं हो सकता। उसकी असली शक्ति तो इस बात में है कि वह नवाचार को अपनाते हुए भी अपनी संस्कृति, नैतिकता, और सनातन दृष्टि से न कटे।अगर आधुनिकता की दौड़ में स्त्री अपने सहज गुणों को खो दे, तो उसका व्यक्तित्व अधूरा रह जाएगा। अत: जरूरी है कि चाहे वह विज्ञान में हो, राजनीति में हो, साहित्य में हो या किसी भी क्षेत्र में—वह अपने भीतर की धैर्य, करुणा, सेवा, सौम्यता और मयार्दा को बनाए रखे। यही गुण उसे विशेष बनाते हैं ।
वर्तमान स्त्री चेतना के नए आयाम निश्चित ही गर्व का विषय हैं। किंतु इन ऊँचाइयों पर पहुँचते हुए यह स्मरण बना रहना चाहिए कि मूल्य, मर्यादा और नैतिकता के बिना कोई भी सफलता टिकाऊ नहीं होती।आज की स्त्री जब अंतरिक्ष में उड़ान भरती है, राजनीति में निर्णायक बनती है, साहित्य में धार रचती है, तो यह आवश्यक है कि वह केवल बाहरी विकास न करे, भीतर की साधना को भी उसी उत्साह से निभाए। सच्चा उत्थान वही है जिसमें नवीनता हो, परंपरा की सुगंध के साथ। शक्ति हो, पर करुणा की छाया में। उन्नति हो, पर विनम्रता के साथ। और यही आदर्श भावी समाज के लिए स्थायी मार्गदर्शक बनेंगे।
स्त्री चेतना के नए आयाम के साथ चुनौतियाँ भी कम नहीं
- Advertisement -
- Advertisement -
RELATED ARTICLES