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Editorial: पारसी थियेटर से रंगीन सिनेमा तक सफर तय करने वाला फिल्मकार जाहिद खान

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देश रोज़ाना: भारतीय सिनेमा में सोहराब मोदी उस हस्ती का नाम है, जिन्होंने अपने करियर का आगाज पारसी थियेटर से किया। देश भर के शहर—शहर, कस्बे—कस्बे थियेटर कर लोगों का मनोरंजन किया। जब फिल्मों का दौर आया, तो टूरिंग टाकीज से जुड़ गए। मनोरंजन की दुनिया से जुड़ा उनका यह सुहाना सफर सिनेमा तक जा पहुंचा। सोहराब मोदी फिल्मों के मैदान में आ गए। उन्होंने मूक फिल्में कीं। ‘आलमआरा’ के साथ सवाक फिल्मों का दौर शुरू हुआ। अपनी शानदार शख्सियत और जानदार डायलॉग डिलेवरी की वजह से उन्होंने यहां भी बहुत जल्दी अपनी जगह बना ली। एक पारसी घराने में पैदा होने के बावजूद सोहराब मोदी का हिंदी, उर्दू जबान पर जिस तरह से कमांड था, वह लोगों को तअज्जुब में डाल देता था। उनके डायलॉग पर जनता तालियां, सीटी बजाकर खुशी जाहिर करती।

2 नवंबर, 1897 को मुंबई में पैदा हुए सोहराब मोदी का बचपन उत्तर प्रदेश के रामपुर में बीता। उन्हें बचपन से ही अदाकारी का शौक था। पढ़ाई मुकम्मल करने के बाद सोहराब मोदी अपने भाई केके मोदी के साथ ट्रैवलिंग एग्जिबिटर का काम करने लगे। यह वह जमाना था, जब शहर-दर-शहर, कस्बा-दर-कस्बा तंबू लगाकर फिल्में चलाने का रिवाज था। लोग इनका बड़ा लुत्फ लेते थे। देश के कुछ महानगरों में थियेटर हॉल तो थे, मगर टाकीज नहीं थीं। टूरिंग टाकीज लोगों का मनोरंजन करती थीं। सोहराब मोदी के भाई ने ‘आर्य सुबोध थिएटर कंपनी’ कायम की और उसके जरिए पहले नाटकों का मंचन और फिर फिल्मों का प्रदर्शन किया।

साल 1924 से लेकर 1935 तक लगातार सोहराब मोदी अपनी थिएटर कंपनी के साथ घूमते रहे। इस दौरान उन्होंने उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक सभी इलाकों में फिल्मों को पहुंचाया। लोगों का मनोरंजन किया। लोगों की जिस तरह की दिलचस्पी होती, वो उसी तरह अपने नाटकों को डिजायन करते। यही वजह है कि ये नाटक दर्शकों को बेहद पसंद आते। इसी दौरान सोहराब और उनके भाई ने ‘वेस्टर्न इंडिया थिएटर कंपनी’ को भी खरीद लिया। ये ग्रुप गुलाम भारत में टूरिंग टाकीज और परमानेंट थिएटर समूहों को प्रमोट करता था। 1935 में सोहराब मोदी ने अपनी ‘स्टेज फिल्म कंपनी’ बनाई।

इस प्रोडक्शन हाउस के बैनर तले उन्होंने पहली फिल्म ‘खून का खून’ बनाई। जो शेक्सपियर के मशहूर ड्रामे ‘हैमलेट’ पर केन्द्रित थी। फिल्म कोई खास कामयाब नहीं रही। उनकी दूसरी फिल्म ‘सैद-ए-हवस’ (1936) भी शेक्सपियर के नाटक ‘किंग जान’ पर आधारित थी। चूंकि सोहराब अपने मनमाफिक फिल्में बनाना चाहते थे, लिहाजा उन्होंने साल 1936 में फिल्म कंपनी ‘मिनर्वा मूवीटोन’ की स्थापना की। इस प्रोडक्शन हाउस के बैनर तले उन्होंने कई बेहतरीन फिल्में बनाईं। मिनर्वा मूवीटोन के बैनर पर उनकी शुरुआती फिल्में वतनपरस्ती के जज्बे से भरपूर हैं। यह वह दौर था, जब मुल्क गुलाम था। 1939 में आई फिल्म ‘’पुकार’, ‘सिकंदर’ (1941) और ‘पृथ्वीवल्लभ’ (1943) वे फिल्में हैं, जिसमें अपने इस मकसद मेंं वो पूरी तरह से कामयाब हुए। उन्होंने बड़ी ही खूबसूरती से देश के गौरवशाली इतिहास को पर्दे तक पहुंचाया।

मुगल बादशाह जहॉंगीर के इंसाफ को मरकज में रखकर बनाई गई उनकी फिल्म ‘पुकार’ दर्शकों को खूब पसंद आई। सोहराब मोदी का डायरेक्शन और अदाकार चंद्रमोहन की बेहतरीन अदाकारी, इस फिल्म में उभरकर आई। इस फिल्म ने चंद्रमोहन को रातों-रात स्टार बना दिया। साल 1941 में आई फिल्म ‘सिकंदर’ ने ‘पुकार’ की कामयाबी को दोहराया। सिकंदर के रोल में पृथ्वीराज कपूर ने लाजबाव अदाकारी की और पर्दे पर इस किरदार को जिÞंदा कर दिया। पोरस का किरदार खुद सोहराब मोदी ने किया। 1953 में आई उनकी ‘झॉंसी की रानी’ एक बड़े बजट की फिल्म थी जिसे उन्होंने उस जमाने में टेक्नीकलर बनाया था, जब लोग ऐसा सोच भी नहीं सकते थे।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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