देश रोज़ाना: 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव में भाजपा की हैट्रिक रोकने के लिए कांग्रेस सहित कई क्षेत्रीय दलों ने इंडिया गठबंधन तो खड़ा कर लिया, पर जिस तेजी और गर्मजोशी से इसका गठन हुआ, उतनी तेजी से ही इसका पतन होता दिखाई दे रहा है। वैसे तो शुरू से ही क्षेत्रीय दल कांग्रेस के नेतृत्व में इंडिया गठबंधन का अस्तित्व नहीं चाहते थे, लेकिन अब राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार चले जाने और मध्य प्रदेश में भी कांग्रेस को मिली करारी हार के बाद तो इंडिया गठबंधन में शामिल कई क्षेत्रीय दल कांग्रेस के नेतृत्व में किसी भी तरह से कार्य करने को तैयार नहीं हैं।
इसका संकेत कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे द्वारा इंडिया गठबंधन के नेताओं की बुलाई गई बैठक में बड़े नेताओं ने अनुपस्थित रहकर दे दिया है। एक ओर जहां भाजपा ने बहुत पहले से ही 2024 का चुनाव विशाल बहुमत से जीतने का प्रयास शुरू कर दिया है और अब तो तीन राज्यों में मिली शानदार सफलता ने उसको और अधिक उत्साह से कार्य करने का अवसर प्रदान कर दिया है। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस की हुई करारी हार के बाद सभी क्षेत्रीय दल इंडिया गठबंधन को मजबूत करने की जगह कांग्रेस को कोसने में लगे हुए हैं। कुछ क्षेत्रीय दल जरूर ऐसे हैं जिन्हें कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी एकता में कोई समस्या नहीं है।
वे वर्तमान में भी पार्टी के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। जैसे झारखंड में झामुमो और तमिलनाडु में द्रमुक, महाराष्ट्र में राकांपा और उद्धव ठाकरे की पार्टी, बिहार की जनता दल यू और आरएलडी। ममता दीदी, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल विपक्षी एकता में कांग्रेस के नेतृत्व में कार्य करने को तैयार नहीं हैं। दरअसल विपक्षी एकता में सबसे बड़ी रुकावट विपक्षी दलों की अपनी महत्वाकांक्षा है। वह भाजपा की तरह कांग्रेस को भी मजबूत देखना नहीं चाहती हैं।
कांग्रेस का यह कहना कि भाजपा के विरुद्ध किसी भी राजनीतिक गोलबंदी की कोशिश उसके बिना संभव नहीं है, एकदम सही है। उसकी अखिल भारतीय उपस्थिति आज भी कायम है। सबसे पुरानी पार्टी होने के नाते कांग्रेस की उपस्थिति विपक्षी एकता में जरूरी है। उसकी हालात भी ठीक नहीं हैं। कांग्रेस में गुटबाजी इतनी चरम सीमा पर है कि गांधी परिवार से अलग राष्ट्रीय अध्यक्ष बने खड़गे भी उसको दूर करने में अपने को असहाय महसूस कर रहे हैं। 2019 में राजस्थान में कांग्रेस सरकार बनने के बाद से ही गहलोत और सचिन पायलट के बीच में मतभेद जारी रहे। पायलट ने तो अपनी ही पार्टी की सरकार को गिराने की कोशिश की। जादूगर कहे जाने वाले गहलोत ने सरकार तो बचा ली, लेकिन इन दोनों के बीच में मतभेद जारी रहे।
जिसको दूर करने की कांग्रेस हाई कमान ने कोशिश तो की लेकिन वह सफल नहीं हुई। इसी का परिणाम रहा कि जनता ने राजस्थान में कांग्रेस को सत्ता से हटा दिया। ऐसी ही हालत मध्य प्रदेश में रही। कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के बीच में कभी दोस्ताना रिश्ता नहीं रहा। कमलनाथ ने तो किसी की भी नहीं सुनी। युवा व नए नेतृत्व को आगे नहीं आने दिया। जीतू पटवारी जैसे उभरते नए युवा को भी दरकिनार कर दिया। कांग्रेस का छत्तीसगढ़ में भी यही हाल रहा। बघेल व सिंह देव के बीच में गुटबाजी कायम रही। चुनाव से कुछ महीने पहले सिंह देव को उप मुख्यमंत्री बनाकर उनकी नाराजगी को दूर करने की कोशिश तो की गई, लेकिन वह सफल नहीं हुई।
जनता के बीच में यही मैसेज गया कि कांग्रेसी तो अपने ही लोगों को नीचा दिखाने व कुर्सी की लड़ाई में लगे हुए हैं। कितनी विचित्र बात है कि कुमारी शैलजा व गांधी परिवार के चेहते रणबीर सुरजेवाला अपने गृह राज्य हरियाणा में गुटबाजी कायम रखे हुए हैं। फिर भी उनको छत्तीसगढ़ व मध्य प्रदेश में कांग्रेस की गुटबाजी खत्म करने व सरकार बनवाने के लिए प्रभारी बनाया गया। भाजपा भी नहीं चाहती कि एक मजबूत विपक्ष हो, विपक्षी एकता हो, मजबूत विपक्षी गठबंधन बने। वह अपने इस प्रयास को पूरा करने के लिए साम दाम दंड भेद की नीति अपना रही है। (यह लेखक के निजी विचार हैं।)
कैलाश शर्मा