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Editorial: सिंधिया के सामने वर्चस्व बनाए रखने की चुनौती

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देश रोज़ाना: मध्य प्रदेश में होने जा रहे 2023 के विधानसभा चुनाव में केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया वर्चस्व बनाए रखने के संकट से जूझ रहे हैं। हालांकि 2019 में कांग्रेस में रहते हुए लोकसभा का चुनाव हारने के बाद से ही सिंधिया के इर्द-गिर्द राजनीतिक संकट गहराया हुआ है। भाजपा से कांग्रेस की सरकार गिराने के बाद उन्हें राज्यसभा का सदस्य और केंद्रीय मंत्री जरूर बनाया, लेकिन न तो संघ और भाजपा में वे पूरी तरह घुल-मिल पाए और न ही अपने निष्ठावान अनुयायियों की वे नई जमात खड़ी कर पाए। नतीजतन उनके जिन समर्थक विधायकों ने 2020 में कमलनाथ की सरकार गिराने में साथ दिया था, उनमें से सात बेघर हो गए हैं।

ग्वालियर-चंबल क्षेत्र के ऐसे 22 विधायक थे, लेकिन इनमें से सात का टिकट भाजपा के आंतरिक सर्वे में जीत नहीं पाने का आधार बनाकर काट दिए गए। ये सभी 2018 में कांग्रेस से चुनाव जीते थे। उस समय जो 22 विधायक भाजपा में शामिल हुए थे, उनमें से पांच तो 2020 के उपचुनाव में ही हार गए थे। इनके नाम हैं-मुरैना से रघुराज सिंह कसाना, दिमनी से गिर्राज दंडोतिया, गोहद से रणवीर जाटव, ग्वालियर पूर्व से मुन्नालाल गोयल और करैरा से जसवंत जाटव। मेहगांव से ओपीएस भदौरिया और भांडेर से रक्षा सरोनिया के जीतने के बावजूद टिकट काट दिए गए। कांग्रेस से भाजपा में आए 10 विधायक ऐसे हैं, जो कमलनाथ और शिवराज दोनों ही सरकारों में मंत्री रहे। अब भाजपा के टिकट पर फिर से चुनाव लड़ रहे हैं। इनमें प्रद्युम्न सिंह तोमर, गोविंद सिंह राजपूत, डॉ. प्रभुराम चैधरी, तुलसीराम सिलावट, राजवर्धन सिंह, बिसाहू लाल सिंह, महेंद्र सिंह सिसौदिया, सुरेश धाकड़, हरदीप सिंह डंग और बृजेंद्र सिंह यादव शामिल हैं।

इनमें कई ऐसे उम्मीदवार हैं, जिनकी सर्वे में रिपोर्ट नकारात्मक थी, लेकिन सिंधिया विकल्प के रूप में दूसरा नाम नहीं दे पाए। कुछ ऐसे भी नाम चल रहे थे, जो मूल भाजपाई होने के साथ हमेशा महल के समर्थक रहे हैं। सिंधिया की बुआ यशोधरा राजे सिंधिया से भी जुड़े रहे हैं, लेकिन सिंधिया ने इन पर भरोसा नहीं जताया। गुना में विधानसभा से सिंधिया नीरज निगम के लिए टिकट चाहते थे, लेकिन भाजपा ने पन्नालाल शाक्य पर दांव चला। ऐसी अटकलें थीं कि सिंधिया विदिशा से विधानसभा का चुनाव लड़ सकते हैं। लेकिन अब वहां से शिवराज समर्थक मुकेश टंडन किस्मत अजमा रहे हैं। ऐसा कई दशक बाद पहली बार देखने में आ रहा है कि ग्वालियर-चंबल अंचल की कई सीटों पर महल समर्थक कोई प्रत्याशी मैदान में नहीं है।

राजमाता विजयाराजे सिंधिया और माधवराव सिंधिया के समय से ही शिवपुरी से महल समर्थक उम्मीदवार चुनाव जीतते रहे हैं। फिर चाहे वे कांग्रेस से रहे हो या भाजपा से। यशोधरा राजे सिंधिया भी शिवपुरी से चार बार विधायक रही हैं। लेकिन इस बार सर्वे से हार का संदेश मिलने के बाद वे मैदान छोड़ गईं। 2018 के चुनाव में कांग्रेस को अधिक सीटें मिलने का श्रेय सिंधिया को दिया जाता है, लेकिन वास्तव में कांग्रेस यहां आरक्षण को लेकर सुलगे आंदोलन और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के एक सवर्ण विरोधी बयान के चलते जीती थी। इस चुनाव में भाजपा के केवल सात विधायक जीते थे। सिंधिया के भाजपा में शामिल होने के बाद उनके लिए तत्काल तो उपलब्धियों के समीकरण अनुकूल रहे, लेकिन अब उनकी असली परीक्षा होनी है। 2020 का उपचुनाव भाजपा ने सरकार में रहते हुए चुनिंदा सीटों पर लड़ा था, जिसमें उसने धन तो पानी की तरह ही बहाया ही, अपनी पूरी ताकत भी झोंक दी थी, लेकिन अब बदले माहौल में ऐसा नहीं है। तमाम तरह की रेवड़ियां सीधे मतदाता को बांटने के बावजूद सत्ता विरोधी रुझान शहर से लेकर गांव तक दिखाई दे रहा है। सिंधिया कांग्रेस की इस लहर को थाम पाएंगे ऐसा लगता नहीं है। गोया भाजपा के यहां यदि 20 से ज्यादा उम्मीदवार नहीं जीत पाते हैं, तो सिंधिया को भाजपा में अपना वर्चस्व बनाए रखना मुश्किल होगा? (यह लेखक के निजी विचार हैं।)

– प्रमोद भार्गव

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