बिहार में एक नदी है कोसी। यह अपना मार्ग बदलने के लिए कुख्यात है। जब जिधर से मन होता है तटबंध तोड़कर बह निकलती है। इसीलिए इसे बिहार का शोक कहा जाता है। बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार भी वैसे ही अप्रत्याशित हो गये हैं। नीतीश पहले लालू यादव के ही साथ थे। लेकिन 1990 के दशक में समता पार्टी के जरिये ये भाजपा के साथ आ गये। 2003 में जनता दल यू बनने के बाद भी ये तालमेल जारी रहा। लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावों के लिए जब नरेंद्र मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाया गया तो इन्होंने 2013 में भाजपा से नाता तोड़ लिया। 2015 में ये महागठबंधन में शामिल हुए, लेकिन 2017 में पाला बदल कर फिर भाजपा के साथ हो गये। 2022 में फिर राजद गठबंधन से जुड़े और अब फिर पाला बदल कर भाजपा के साथ हो गये।
एक चर्चा तो यह है कि राजद से मिलकर सरकार बनाते समय शायद दोनों दलों में यह तय हुआ था कि फिलहाल नीतीश मुख्यमंत्री होंगे लेकिन बाद में तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनाकर खुद केंद्र की राजनीति करेंगे। अब जब गठबंधन मजबूत स्थिति में था और आम चुनाव नजदीक आ गये तो लालू यादव ने इनसे तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनाने को दबाव बनाया। उन्हें लगा कि अगर 2024 के आम चुनाव में गठबंधन की जीत होती है जैसी कि उम्मीद थी तो तेजस्वी का नेतृत्व बिहार में स्थापित हो जाएगा। उधर नीतीश कुमार को भी उम्मीद थी कि इंडिया गठबंधन बनाने में उनकी कोशिशों को देखते हुए उन्हें इंडिया गठबंधन में कोई सम्मानजनक पद मिल जाएगा। पर ऐसा नहीं हुआ। ऐसे में उन्होंने मुख्यमंत्री पद छोड़ना उचित नहीं समझा।
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नीतीश की सोच ये थी कि उनके विधायकों की संख्या कम है, इसीलिए पहले भाजपा ने उन पर मुख्यमंत्री पद छोड़ने का दबाव बनाया और अब लालू यादव दबाव बना रहे हैं। अगर उनके विधायकों की संख्या 40-45 की बजाय 70-75 होती तो कोई उन पर दबाव नहीं बना पाता। यही सोचकर उन्होंने लालू के सामने प्रस्ताव रखा कि लोकसभा के साथ ही विधानसभा चुनाव करा लिए जाएं। नीतीश जानते थे कि एकजुट महागठबंधन के तहत चुनाव होते हैं तो उनकी पार्टी 2015 की तरह ही 70-75 सीटें आसानी से जीत जाएगी। तब उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाना नामुमकिन हो जाएगा। लेकिन लालू यादव भी उनके इस खेल को समझ गये और लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभा चुनाव कराने के प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया। अब चर्चा यह है कि वही प्रस्ताव उन्होंने भाजपा के सामने रखा जिसे भाजपा ने शायद मंजूर कर लिया है।
राजद गठबंधन छोड़ने की वजह नीतीश कुमार ने काम करने में दिक्कतें बताईं। अब आप सोचिये कि वहां एक तेजस्वी उप मुख्यमंत्री थे। उनके साथ काम करने में इन्हें दिक्कत महसूस हो रही थी जबकि यहां दो उप मुख्यमंत्री हैं और एक ने तो बाकायदा इन्हें हटाने की मांग को लेकर पगड़ी बांध रखी है। उसने कसम खाई है कि जब तक नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद से हटा नहीं लेगा तब तक पगड़ी नहीं खोलेगा। वजह जो भी हो, लेकिन नीतीश कुमार के एक बार फिर पाला बदलने से उनकी साख बहुत गिर गई है। ऐसे अविश्वसनीय व्यक्ति से समझौता करके भाजपा को भी अपने कार्यकर्ताओं को समझाने में मुश्किल आ रही है।
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गिरती साख के कारण उनके वोटों और विधायकों में लगातार कमी हो रही है। 2010 में जहां उन्हें करीब 23 फीसदी वोट मिले थे और विधायकों की संख्या 110 के करीब थी वह 2015 में घटकर 16 फीसदी से थोड़ा ज्यादा और विधायकों की संख्या 72 पर आ गई। 2020 के चुनाव में वोट 15 प्रतिशत के करीब रह गये और विधायकों की संख्या भी 42 पर सिमट गई। इसके उलट पिछले विधानसभा चुनाव में राजद भाजपा को पछाड़ते हुए सबसे बड़ी पार्टी बन गई थी। न केवल विधायकों की संख्या के मामले में बल्कि वोटों के प्रतिशत के मामले में भी। भाजपा जहां 24 प्रतिशत से घटकर बीस से नीचे पहुंच गई, वहीं राजद करीब 24 प्रतिशत पर पहुंच गई। अभी विधायकों की संख्या में दोनों गठबंधनों के बीच कोई बहुत ज्यादा अंतर नहीं है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
-अमरेंद्र कुमार राय
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