Sunday, December 22, 2024
21.1 C
Faridabad
इपेपर

रेडियो

No menu items!
HomeEDITORIAL News in Hindiबाजारीकरण की भेंट चढ़े हमारे सामाजिक त्यौहार।

बाजारीकरण की भेंट चढ़े हमारे सामाजिक त्यौहार।

Google News
Google News

- Advertisement -

डॉo सत्यवान सौरभ


हिंदुस्तान त्योहारों का देश है। त्यौहार हमको सामाजिक और संस्कारिक रूप से जोड़ने का काम करते हैं। हमारी सांस्कृतिक और संस्कारिक एकता ही भारत की अखंडता का मूल आधार है। “व्रत-त्यौहारों के दिन हम देवताओं का स्मरण करते हैं, व्रत, दान तथा कथा श्रवण करते हैं, जिससे व्यक्तिगत उन्नति के साथ सामाजिक समरसता का संदेश भी समाज में पहुँचता है। इसमें ही भारतीय संस्कृति के बीज छिपे हैं।” हमारे सामाजिक जीवन में कुछ ऐसे दिन आते हैं जिनसे मात्र एक व्यक्ति, या परिवार ही नहीं वरन पूरा समाज आनंदित और उल्लासित होता है। भारत को यदि पर्व-त्योहारों का देश कहा जाए तो उचित होगा। यहाँ भोजपुरी भाषा में एक कहावत है-‘सात वार नौ त्यौहार’।

कृषि प्रधान होने के कारण प्रत्येक ऋतु-परिवर्तन हंसी-ख़ुशी मनोरंजन के साथ अपना-अपना उपयोग रखता है। इन्हीं अवसरों पर त्यौहार का समावेश किया गया है, जो उचित है। प्रथम श्रेणी में वे व्रतोत्सव, पर्व-त्यौहार और मेले है, जो सांस्कृतिक हैं और जिनका उद्देश्य भारतीय संस्कृति के मूल तत्वों और विचारों की रक्षा करना है। इस वर्ग में हिन्दूओं के सभी बड़े-बड़े पर्व-त्यौहार आ जाते है, जैसे-होलिका-उत्सव, दीपावली, बसन्त, श्रावणी, संक्रान्ति आदि। संस्कृति की रक्षा इनकी आत्मा है। दूसरी श्रेणी में वे पर्व-त्यौहार आते है, हिन्हें किसी महापुरूष की पुण्य स्मृति में बनाया गया है। जिस महापुरूष की स्मृति के ये सूचक है, उसके गुणों, लीलाओं, पावन चरित्र, महानताओं को स्मरण रखने के लिए इनका विधान है। इस श्रेणी में रामनवमी, कृष्णाष्टमी, भीष्म-पंचमी, हनुमान-जयंती, नाग-पंचमी आदि त्यौहार रखे जा सकते हैं।

यानि यहाँ हर दिन में एक त्यौहार अवश्य पड़ता है। अनेकता में एकता की मिसाल इसी त्यौहार पर्व के अवसर पर देखी जाती है। रोजमर्रा की भागती-दौड़ती, उलझनों से भरी हुई ऊर्जा प्रधान हो चुकी, वीरान-सी बनती जा रही ज़िन्दगी में ये त्यौहार ही व्यक्ति के लिए सुख, आनंद, हर्ष एवं उल्लास के साथ ताज़गी भरे पल लाते हैं। यह मात्र हिंदू धर्म में ही नहीं वरन् विभिन्न धर्मों, संप्रदायों पर लागू होता है। वस्तुतः ये पर्व विभिन्न जन समुदायों की सामाजिक मान्यताओं, परंपराओं और पूर्व संस्कारों पर आधारित होते हैं। सभी त्यौहारों की अपनी परंपराएँ, रीति-रिवाज होते हैं। ये त्यौहार मानव जीवन में करुणा, दया, सरलता, आतिथ्य सत्कार, पारस्परिक प्रेम, सद्भावना, परोपकार जैसे नैतिक गुणों का विकास कर मनुष्य को चारित्रिक एवं भावनात्मक बल प्रदान करते हैं। भारतीय संस्कृति के गौरव एवं पहचान ये पर्व, त्यौहार सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण हैं।

सामाजिक त्यौहार और अंतर-विद्यालय सांस्कृतिक कार्यक्रम बच्चों के आत्मविश्वास और पारस्परिक कौशल के निर्माण में सहायता करने के लिए अद्भुत अवसर प्रदान करते हैं। पारस्परिक कौशल में दूसरों के साथ प्रभावी ढंग से संवाद करने और बातचीत करने की क्षमता शामिल है और आत्मविश्वास स्वयं और स्वयं की क्षमताओं में विश्वास है, जो दोनों दूसरों के साथ सकारात्मक सम्बंध बनाने के लिए आवश्यक हैं। इस लेख में, हम कुछ तरीकों पर ग़ौर करेंगे कि ये आयोजन बच्चों के आत्मविश्वास और पारस्परिक कौशल को बनाने में कैसे मदद करते हैं। सामाजिक त्यौहार विभिन्न संस्कृतियों, भाषाओं और परंपराओं के संपर्क में लाते हैं, जो उनके क्षितिज को व्यापक बना सकते हैं और उन्हें दूसरों के प्रति सहानुभूति और समझ विकसित करने में मदद कर सकते हैं। नए दोस्त और संपर्क बना सकते हैं, जो समुदाय से अधिक जुड़ाव महसूस करने और अपनेपन की भावना विकसित करने में मदद कर सकते हैं। ये आयोजन इसे विकसित करने का एक शानदार तरीक़ा है क्योंकि वे बहुत सारे लोगों को एक साथ लाते हैं और इस तरह एकता और भाईचारे की भावना पैदा करते हैं। ये जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों के प्रति अधिक स्वीकार्य, सहिष्णु और समावेशी होना सिखाते हैं।

बाजारीकरण ने सारी व्यवस्थाएँ बदल कर रख दी है। हमारे उत्सव-त्योहार भी इससे अछूते नहीं रहे। शायद इसीलिए प्रमुख त्यौहार अपनी रंगत खोते जा रहे हैं और लगता है कि हम त्यौहार सिर्फ़ औपचारिकताएँ निभाने के लिए मनाये जाते हैं। किसी के पास फुरसत ही नहीं है कि इन प्रमुख त्योहारों के दिन लोगों के दुख दर्द पूछ सकें। सब धन कमाने की होड़ में लगे हैं। गंदी हो चली राजनीति ने भी त्योहारों का मज़ा किरकिरा कर दिया है। हम सैकड़ों साल गुलाम रहे। लेकिन हमारे बुजुर्गों ने इन त्योहारों की रंगत कभी फीकी नहीं पड़ने दी। आज इस अर्थ युग में सब कुछ बदल गया है। कहते थे कि त्यौहार के दिन न कोई छोटा और न कोई बड़ा। सब बराबर। लेकिन अब रंग प्रदर्शन भर रह गये हैं और मिलन मात्र औपचारिकता। हम त्यौहार के दिन भी हम अपनो से, समाज से पूरी तरह नहीं जुड़ पाते। जिससे मिठाइयों का स्वाद कसैला हो गया है। बात तो हम पूरी धरा का अँधेरा दूर करने की करते हैं, लेकिन ख़ुद के भीतर व्याप्त अंधेरे तक को दूर नहीं कर पाते। त्योहारों पर हमारे द्वारा की जाने वाली इस रस्म अदायगी शायद यही इशारा करती है कि हमारी पुरानी पीढिय़ों के साथ हमारे त्यौहार भी विदा हो गये।

हमारे पर्व त्यौहार हमारी संवेदनाओं और परंपराओं का जीवंत रूप हैं जिन्हें मनाना या यूँ कहें की बार-बार मनाना, हर साल मनाना हर समाज बंधु को अच्छा लगता है। इन मान्यताओं, परंपराओं और विचारों में हमारी सभ्यता और संस्कृति के अनगिनत सरोकार छुपे हैं। जीवन के अनोखे रंग समेटे हमारे जीवन में रंग भरने वाली हमारी उत्सवधर्मिता की सोच मन में उमंग और उत्साह के नये प्रवाह को जन्म देती है। हमारा मन और जीवन दोनों ही उत्सवधर्मी है। हमारी उत्सवधर्मिता परिवार और समाज को एक सूत्र में बाँधती है। संगठित होकर जीना सिखाती है। सहभागिता और आपसी समन्वय की सौगात देती है। हमारे त्योहार, जो हम सबके जीवन को रंगों से सजाते हैं, सामाजिक त्यौहार एक अनूठा मंच प्रदान करते हैं इनमे साथियों के साथ सहयोग करने, मिलने और सामूहीकरण करना, अपनी प्रतिभा दिखाने और विभिन्न संस्कृतियों और परंपराओं के बारे में सिखाने और सीखने की क्षमता होती है। ये कौशल हमारे जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा हैं और अक्सर हमारे जीवन के लगभग सभी पहलुओं के मूल में होते हैं।

इसलिए, वर्तमान समय में इनकी प्रासंगिकता का जहाँ तक प्रश्न है, व्रत-त्यौहारों के दिन हम उक्त देवता को याद करते हैं, व्रत, दान तथा कथा श्रवण करते हैं जिससे व्यक्तिगत उन्नति के साथ सामाजिक समरसता का संदेश भी दिखाई पड़ता है। इसमें भारतीय संस्कृति के बीज छिपे हैं। ” पर्व त्यौहारों का भारतीय संस्कृति के विकास में अप्रतिम योगदान है। भारतीय संस्कृति में व्रत, पर्व-त्यौहार उत्सव, मेले आदि अपना विशेष महत्त्व रखते हैं। हिंदुओं के ही सबसे अधिक त्यौहार मनाये जाते हैं, कारण हिन्दू ऋषि-मुनियों के रूप में जीवन को सरस और सुन्दर बनाने की योजनाएँ रखी है। प्रत्येक पर्व-त्यौहार, व्रत, उत्सव, मेले आदि का एक गुप्त महत्त्व हैं। प्रत्येक के साथ भारतीय संस्कृति जुडी हुई है। वे विशेष विचार अथवा उद्देश्य को सामने रखकर निश्चित किये गये हैं। मूल्यों को पुनः प्रतिष्ठा के लिए मूल्यपरक शिक्षा की आवश्यकता पर विशेष बल दिया गया है। मूल्यपरक शिक्षा आज समय की मांग बन गई है। अतः इसे शीघ्रतिशीघ्र लागू करने की आवश्यकता है। वर्तमान डिजिटल युग में लोग अपनी सभ्यता-संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। इसके कारण व्रत तथा त्यौहार का महत्त्व बढ़ जाता है।

- Advertisement -
RELATED ARTICLES
Desh Rojana News

Most Popular

Must Read

नौकरी नहीं है तो क्या, पांच किलो अनाज तो मिलता है

संजय मग्गूहमारे देश की अर्थव्यवस्था में मांग लगातार घट रही है। मांग में गिरावट का कारण लोगों की जेब में पैसे का न होना...

अनशन से नहीं, बातचीत से ही खत्म होगा किसान आंदोलन

संजय मग्गूखनौरी बॉर्डर पर पिछले 26 दिन से अनशन कर रहे किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल की हालत दिनोंदिन खराब होती जा रही है।...

आंबेडकर के मान-अपमान की नहीं, दलित वोट बैंक की चिंता

सुमित कुमारपिछले सप्ताह राज्यसभा में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के बयान को लेकर पूरे देश की राजनीति गरमाई हुई है। कांग्रेस और विपक्षी दल...

Recent Comments