नामदेव महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत थे। उनके गुरु बिनोबा खेचर उम्र में उनसे सिर्फ पांच साल बड़े थे। दक्षिण के प्रसिद्ध संत ज्ञानेश्वर उनके समकालीन थे। नामदेव के समय में महाराष्ट्र में नाथ और महानुभाव पंथ का बोलबाला था। कहा जाता है कि संत नामदेव ने लगभग पंद्रह साल तक पंजाब में भगवान्नाम का प्रचार किया था। इनकी कुछ रचनाएं गुरु ग्रंथसाहिब में संग्रहीत की गई हैं। एक बार की बात है। इनके पास श्यामनाथ नाम का व्यक्ति अपने पुत्र तात्या को लेकर पहुंचा। श्यामनाथ ने संत नामदेव से कहा कि मेरा पुत्र तात्या न तो साधु-संतों की संगति में रहना पसंद करता है, न ही पूजा पाठ करता है। सारा दिन आवारागर्दी करता रहता है। इसे कुछ भी काम करना भी नहीं सुहाता है। इसका क्या किया जाए, कुछ समझ में नहीं आता है। यह सुनकर संत नामदेव कुछ देर तक सोचते रहे। फिर पिता-पुत्र से बोले कि मेरे साथ आओ। वह उन दोनों को लेकर मंदिर के लंबे-चौड़े दालान में लेकर गए। पिता-पुत्र ने देखा कि एक जगह लालटेन जल रही थी। उस समय अंधेरा हो चुका था। वे उन दोनों को लेकर आगे बढ़ चले। कुछ दूर जाने पर संत नामदेव खड़े हो गए, तो तात्या ने कहा कि आप हम लोगों को अंधेरे में लेकर क्यों आए हैं। इससे अच्छा था कि वहां खड़े होते जहां लालटेन जल रही है। इस पर नामदेव बोले कि यही तो मैं तुम्हें समझाना चाहता हूं। साधु-संत और उनकी संगति लालटेन का काम करती है। तुम अंधेरे में जब हाथ पैर मार रहे होते हो, तो पूजा, प्रार्थना, भजन और साधु संगति की तुम्हें रास्ता दिखाते हैं। यही कुमार्ग से सत्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। अच्छा होगा कि तुम भी अभी से सन्मार्ग पर चलना सीख लो। यह सुनकर तात्या को अपने ऊपर बड़ा पछतावा हुआ और उस दिन से पिता के बताए मार्ग पर चलने लगा।
-अशोक मिश्र