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पैकेट बंद भोजन यानी हमारे घर की रसोई पर बाजार का हमला

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संजय मग्गू
अगर लोगों से पूछा जाए कि घर किसे कहते हैं, तो संभव है कुछ लोग ईंट पत्थर से बने ठिकाने को घर कहें। लेकिन सच तो यह है कि कोई भी भवन या मकान वास्तविक अर्थों में घर तब तक नहीं कहलाता, जब तक कि उस घर में किचन यानी रसोई न हो और खाना न पकता हो। घर और घरवाली /घरवाला का बड़ा अटूट संबंध है। घरवाली या घरवाला है तो उस घर की रसोई में खाना जरूर पकता होगा। सवाल यह नहीं है कि परिवार में खाना कौन बनाता है। आज समय बदल गया है। स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं रह गया है। कोई भी खाना पकाए, मुद्दा यह नहीं है, लेकिन असल मुद्दा यह है कि बाजार हमारे घर की रसोई को घर के कांसेप्ट से निकाल देना चाहता है। प्राचीनकाल से ही हमारे देश में घर का चूल्हा यानी रसोई पूरे परिवार का केंद्र रही है। यह रसोई ही थी जिसने परिवार को हर सदस्य से प्रेम करना सिखाया। एक दूसरे की इज्जत, सुरक्षा और देखभाल करना सिखाया। संयुक्त परिवार के दिनों में सास-बहू, देवरानी-जेठानी, ननद-भाभी के बीच पनपे मतभेद को मनभेद में बदलने से रोका, भोजन बनाते या साथ बैठकर खाते समय सारे मतभेद, गुस्से को तिरोहित करना भी रसोई ने ही सिखाया। यही हाल पुरुषों का भी था। जब साथ बैठकर खाते थे, तो आपसी मतभेद, मनमुटाव हवा हो जाते थे। लेकिन आज उसी रसोई पर संकट मंडरा रहा है। यूनिसेफ ने भारत समेत दुनिया भर के 97 देशों का अध्ययन करने के बाद पाया है कि बीते 15 साल में पैकेट बंद भोजन की बिक्री में 11 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। भारत में 32 प्रतिशत कम स्वास्थ्यकर पैकेट बंद भोजन पाए गए। नतीजा यह हुआ कि जेब से पैसे तो अधिक गए, लेकिन बीमारियां ज्यादा मिलीं। मोटापा, डायबिटीज, ब्लड प्रेशर, अनिद्रा जैसी न जाने कितनी बीमारियां सौगात में मिलीं। तोंद ने विस्तार पाया। स्वाद में चटपटी और जब जरूरत हो, तब पैकेटबंद भोजन की उपलब्धता ने हमें अपने घर की रसोई की जगह बाजार पर निर्भर होना सिखा दिया है। इसके लिए बाजार ने कई तरह के तर्क और नारे गढ़ रखे हैं। यह नारे और तर्क हमें लुभाते हैं। समय की बचत के नाम पर हमें मजबूर करते हैं कि हम अपने घर की रसोई को बंद ही रखें। हमारे खान-पान की परंपरा और पौष्टिकता पर यह एक तरह से हमला है। बाजार हमें सिखाना चाहता है कि परिवार में जब जिसको भूख लगे, वह बाजार जाए और खा ले। पहले परिवार के लोग एक साथ बैठकर खाते थे, तब परिवार का हर सदस्य एक दूसरे के सुख-दुख से परिचित होता था। दुख को दूर करने का सामूहिक प्रयास किया जाता था। सलाह मशविरा किए जाते थे। आज हमें बाजार सामूहिकता से काटकर वैयक्तिक बना देना चाहता है। हमें इस बात पर ध्यान देना होगा। यदि हमने अपनी रसोई को सहेजकर नहीं रखा, तो एक दिन ऐसा भी आ सकता है, जब हमें पूरी तरह बाजार के डिब्बाबंद भोजन पर ही निर्भर रहना पड़े।

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