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HomeEDITORIAL News in Hindiविकास के नाम पर विनाश की ओर अग्रसर मानव समाज

विकास के नाम पर विनाश की ओर अग्रसर मानव समाज

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अभी जुलाई 2023 को गुजरे एक महीने भी पूरे नहीं हुए हैं। लेकिन जुलाई में जो भी हमने अनुभव मौसम को लेकर किया होगा, ज्यादातर लोग उस अनुभव या एहसास को भूल गए होंगे। उन्हें यह भी पता नहीं होगा कि आखिर जुलाई 2023 में ऐसी क्या खास बात थी कि जिसके लिए उसे याद रखा जाए। असल में पिछले महीने यानी जुलाई 2023 को हमें इस बात के लिए याद रखना होगा कि यदि हम पृथ्वी के औसत तापमान के नजरिये से देखें , तो जुलाई 2023 का महीना धरती पर अब तक का सबसे गर्म महीना था। भारत के लोगों ने भले ही जुलाई के महीने की तपिश कम महसूस की हो, लेकिन ईरान के बुशहर वालों से पूछकर देखिए कि उन्होंने 66 डिग्री सेल्सियस का तापमान कैसे झेला होगा? अमेरिका के एरिजोना का तापमान इस साल जुलाई में अधिकतम 48 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचा, तो चीन के झिंजियान में 52.2 डिग्री सेल्सियस तापमान रिकार्ड किया गया।

प्रकृति विज्ञानी यह भी कह रहे हैं कि अभी तो यह शुरुआत है। अभी बहुत सारे झटके लगने बाकी हैं। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि पृथ्वी के तापमान में दो डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी प्राकृतिक वजहों से नहीं है। इसके लिए हमारा मानव समाज सामूहिक रूप से जिम्मेदार हैं।  ग्लोबल वार्मिंग के लिए हमारे पुरखे तो कम जिम्मेदार हैं, लेकिन वर्ष 1950 के बाद पैदा हुई पीढ़ी इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। संयुक्त राष्ट्र के सेक्रेटरी एंटोनियो गुटेरस का तो यहां तक कहना है कि हम इतने बदतर हालात तक इस वजह से पहुंचे कि हम इंसानों को जलाना और इस्तेमाल करना ही आता है।

प्रकृति वैज्ञानिकों को गुस्सा इस बात पर आ रहा है कि हमने पहले जीवाश्म का उपयोग करना सीखा। फिर जीवाश्म की ताकत को कल-कारखानों को चलाने का जरिया बना लिया। डीजल, पेट्रोल और गैस का उपयोग धड़ल्ले से करने लगे। प्रकृति में असंतुलन पैदा होना शुरू हुआ। लेकिन हमें इतने पर भी संतोष नहीं हुआ। नए आविष्कार के नाम पर हमने 1940 में पॉलिमर की खोज कर ली। नतीजा यह हुआ कि इसकी उपयोगिता को देखते हुए हमने इसे अपनी जिंदगी में जगह दे दी। शुरुआत में कचरे के रूप में अलग की गई प्लास्टिक को जलाकर इसके कणों को आकाश में पहुंचा दिया। इसके बाद यह नदियों, समुद्रों और ताल-तलैयों में भी प्लास्टिक कचरा पहुंचने लगा।  वर्ष 1950 के दशक में ही प्रदूषण के संकेत पूरी दुनिया में दिखने लगे थे। 

भारी इंडस्ट्री की वजह से पारा और लेड पर्यावरण में घुलने लगा था। वायुमंडल में नाइट्रोजन की अधिकता साफ दिखाई देने लगी थी। नतीजा यह हुआ कि हमारे पृथ्वी ग्रह की केमिस्ट्री बदलने लगी। हमने ध्यान नहीं दिया। अब दुनिया भर के वैज्ञानिक, नीति निर्धारक और बुद्धिजीवी प्लास्टिक और पृथ्वी के बढ़ते तापमान को लेकर छाती पीट रहे हैं। हाय तौबा मचा रहे हैं, लेकिन लोग है कि प्लास्टिक को अपने जीवन से निकालने को तैयार ही नहीं है। दुनिया भर की सरकारें  प्लास्टिक के उपयोग पर रोक लगाने की बात तो करती हैं, लेकिन सीधे फैक्ट्रियों को बंद कराने की जगह लोगों से इसका उपयोग बंद करने की अपील करती हैं। नदियां, समुद्र, भूगर्भ जल, ताल-तलैया का पानी प्रूदषित हो रहा है, प्रकृति का तापमान बढ़ रहा है, हमारी बला से। हम जिंदा रहें, बस यही बहुत है।

संजय मग्गू

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