वर्तमान अफगानिस्तान के बल्ख इलाके में 730 ईस्वी में सूफी संत इब्राहिम इब्न आदम का जन्म हुआ था। कुछ मान्यताओं के अनुसार, तब अफगानिस्तान और ईरान के कुछ हिस्से में भी बुद्ध धर्म का बोलबाला था। महात्मा बुद्ध की तरह इन्होंने भी संत बनने के लिए सिंहासन का परित्याग कर दिया था। सुन्नी सूफीवाद के प्रचार प्रसार में इनका बहुत बड़ा योगदान बताया जाता है। कहा जाता है कि एक बार यह पूरे राजसी ठाठबाट के साथ मक्का की यात्रा पर जा रहे थे। इब्राहिम इब्न आदम अफगानिस्तान के बहुत बड़े राजा थे। उनके पिता का भी पूरे इलाके में दबदबा था।
मक्का की यात्रा पर जाते समय जहां रात होती, तो इनके लिए शिविर तैयार किया जाता था जिसमें सोने, चांदी और तमाम जवाहरात जड़े होते थे। इनको देखकर लगता ही नहीं था कि कोई सूफी संत मक्का की यात्रा पर है। सभी लोगों को यही लगता था कि कोई राजा मक्का की यात्रा पर जा रहा है। संयोग से उसी रास्ते पर एक सूफी संत भी मक्का की यात्रा पर जा रहा था। उसने इब्राहिम के ठाठबाट देखे, तो उसके मन में इनके बारे में जानने की जिज्ञासा हुई। उसने इब्राहिम से मिलकर कहा कि आपको यह सब त्याग देना चाहिए।
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आप संत हैं और संत को इतने ठाठबाट के साथ रहना शोभा नहीं देता है। इब्राहिम ने कहा कि ठीक है, आप रात यहीं ठहरिये। सुबह हम दोनों पैदल मक्का की यात्रा पर चलेंगे। संत मान गया। सुबह हुई तो दोनों लोग पैदल ही मक्का की ओर चल पड़े। दोपहर में संत को याद आया कि भीख मांगने का कटोरा तो शिविर में छूट गया है। वह वापस लौटने लगा, तो इब्राहिम ने कहा कि मैंने आपके कहने से सब कुछ त्याग दिया और आप एक कटोरे के लिए वापस जा रहे हैं। यह सुनकर सूफी संत बहुत लज्जित हुआ।
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