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वर्तमान परिवेश में स्वामी दयानंद का महत्व

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उन्नीसवीं सदी में भारत गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था और समाज में अनेक प्रकार की सामाजिक बुराइयां मुँह बाए खड़ी थीं। उस कालखंड में देश के इतिहास में राजा राममोहन राय, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद तथा स्वामी दयानंद जैसे महानुभावों ने अपने क्रांतिकारी विचारों से समाज का कायाकल्प किया तथा सामाजिक एवं धार्मिक सुधारों में अग्रणी भूमिका निभाई। जब हमारी सांस्कृतिक परंपराओं और मूल्यों को मिटाने की कोशिश की जा रही थी तथा चारों तरफ कोरे आडम्बर का बोलबाला था, तब ऐसी विपरीत परिस्थितियों और चुनौतियों का सामना करने के लिए स्वामी दयानंद सरस्वती ने नवजागरण का शंखनाद किया।

महर्षि दयानंद सरस्वती का जन्म राजकोट (गुजरात) के टंकारा में 12 फरवरी 1824 को फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की दशमी के दिन एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। मूल नक्षत्र में जन्म होने के कारण उनका नाम मूलशंकर रखा गया। बचपन में मूलशंकर शिव के परम भक्त थे। उन्होंने वेद, शास्त्र, धार्मिक पुस्तकों का गहन अध्ययन किया। एक बार उनके पिता ने उनको महाशिवरात्रि का व्रत रखने के लिए कहा, लेकिन शिवमंदिर में चूहों का उत्पात देखा तो शिव के बारे में उनके विचार बदल गए। इसके बाद उन्हें सच्चे शिव को पाने की जिज्ञासा जाग उठी। इसी दौरान परिवार में हुई रिश्तेदारों की मौत के बाद वे जन्म-मरण के असली अर्थ का चिंतन करने लगे। उनके इस व्यवहार से उनके पिता चिंतित रहने लगे। पिता ने उनके विवाह का फैसला लिया। लेकिन वे विवाह नहीं करना चाहते थे। आखिर सन 1846 में शिवरात्रि के दिन घर परिवार को त्याग कर सत्य की खोज में निकल पड़े।

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वे गुरु विरजानंद के पास पहुंचे जहां उन्हें पाणिनी व्याकरण, वेद वेदांग और पातंजलि योगसूत्र और योगदर्शन की शिक्षा मिली। अपने गुरु की प्रेरणा से उन्होंने परोपकार करने, अज्ञान को मिटाकर वेदों के प्रकाश और आलोक को जन जन तक फैलाने का संकल्प लिया। देश भर में समाज के उत्थान के लिए निकल गए। वैदिक संस्कृति और वेदों के वर्चस्व को भारत एवं विश्वभर में प्रचारित करने के लिए स्वामी जी ने सन 1875 में मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की। उन्होंने वेदों को प्रामाणिक ग्रंथों के रूप में स्थापित किया। स्वामी जी ने समस्त विश्व को आर्य बनाने का नारा दिया। उन्होंने वेदों को ईश्वरीय ज्ञान मानते हुए ‘पुन: वेदों की ओर चलो’ का नारा दिया।

यह भारतीय इतिहास में बहुत बड़ी घटना साबित हुई। इसका भारतीय समाज पर बड़ा असर पड़ा और देश को कई सामाजिक बुराइयों से छुटकारा दिलाया। उन्होंने छुआछूत, अंध भक्ति, जाति प्रथा, मूर्तिपूजा, बाल विवाह, पशुबलि, श्राद्ध, जंत्र, तंत्र-मंत्र, झूठे कर्मकाण्ड, अंध विश्वास और पाखंड का विरोध किया। आर्य समाज का प्रभाव आज भी भारत खासतौर पर हरियाणा, पंजाब और दिल्ली में देखने को मिलता है। स्वामी दयानन्द के व्यक्तित्व से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है। उनमें देश प्रेम की भावना कूट कूट कर भरी हुई थी।

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उन्होंने स्वतन्त्रता सेनानियों के भीतर राष्ट्रप्रेम की लौ जलाई। स्वामी दयानंद की विचारधारा से प्रेरित होकर बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, राम प्रसाद बिस्मिल्ला, सुभाषचंद्र बोस, स्वामी श्रद्धानंद, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह जैसे लाखों युवाओं ने भारतवर्ष की स्वाधीनता हेतु अपना सर्वस्व बलिदान किया। वे आज भी युवाओं के प्रेरणा स्रोत हैं। 30 अक्टूबर, 1883 को दिवाली के दिन रसोइये ने एक षडयंत्र के तहत गुरु के दूध में कांच के टुकड़े मिला दिये। उन्हें असहनीय दर्द सहना पड़ा, लेकिन अगले दिन मौत से पहले उन्होंने रसोइये को माफ कर दिया। अपने हत्यारे को क्षमादान देना, ऐसी करुणा और दया भाव का उदाहरण विश्व में कहीं नहीं मिलेगा।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

डा. शिवसिंह रावत

-डा. शिवसिंह रावत

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