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भारत और चीन उपयुक्त रास्ते पर, परंतु भरोसा जल्दबाजी

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शगुन चतुर्वेदी
भारत और चीन पांच साल बाद सीमा विवाद समाधान हेतु गठित विशेष प्रतिनिधिमंडल की उच्च स्तरीय वार्ता पिछले दिनों संपन्न हुई। यह 23वीं दौर की विशेष प्रतिनिधिमंडल की वार्ता थी जो वर्ष 2020 में पूर्वी लद्दाख स्थित वास्तविक नियंत्रण रेखा पर विवाद शुरू होने के बाद से बंद थी। एसआर वार्ता को दोनों देशों की तरफ से सकारात्मक बताया गया। इसी साल जब चीनी राष्ट्रपति शी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी रूस के कजान में मिले थे, तभी यह निश्चित किया गया था कि एसआर स्तर की वार्ता फिर से प्रारम्भ की जाएगी जिससे न केवल सीमा पर अमन-शांति बहल किया जा सकेगा बल्कि सीमा से जुड़े मुद्दे का निष्पक्ष, उचित व दोनों पक्षों को स्वीकार्य समाधान निकला जा सकेगा। वर्ष 2020 में भारत-चीन सीमा के पश्चिमी क्षेत्र में उपजे तनाव की समाप्ति पर बनी सहमति के बाद यह पहली बैठक थी। चीनी विदेश मंत्रालय का कहना है कि दोनों पक्षों को सीमा पार विनिमय और सहयोग मजबूत बनाने की कोशिश जारी रखने पर सहमत हैं। दोनों देशों ने भारतीय तीर्थयात्रियों के लिए तिब्बत स्थित कैलास मानसरोवर की यात्रा, नाथुला में कारोबार फिर से शिरू करने पर सहमति जताई है।
उल्लेखनीय है कि व्यापक स्तर पर यह प्रयास न केवल दोनों देशों के बीच संबंधों में मधुरता बढ़ा रहा है, बल्कि द्विपक्षीय संबंधों में रणनीतिक संचार को भी मजबूत कर रहा है। परंतु यक्ष प्रश्न यह है कि क्या तानाशाह मंसूबे वाला राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने वाकई अपना विस्तारवादी सोच को त्याग दिया है? इसका जवाब एक ही शब्द में होगा, नहीं। अतिराष्ट्रवादी सोच रखने वाले राष्ट्रपति शी का एक ही सपना है कि कैसे भी हो चीन को आर्थिक और सैन्य ताकतों वाला दुनिया का सर्वश्रेष्ठ देश बनाया जाए। एशिया और विश्व में वर्चस्व और विस्तारवादी सोच के बिना यह असंभव है। चीन की ‘प्रमुख देश कूटनीति’ वाली अवधारणा अपने वैध हितों और अधिकारों को कभी भी छोड़ने नहीं देगी। इसी कारण इसने न केवल भारत के अलावा दसों देशों के साथ अपने क्षेत्रीय विवादों को समाप्त नहीं किया है। सबके साथ दबंग व्यवहार अपनाकर धमकाना भी जारी रखा है। ऐसा सोचना भी मुश्किल है कि दोनों देशों के बीच बिगड़े संबंध शीघ्र पटरी पर आएंगे। भारत के साथ चीन के कारनामे जगजाहिर हैं।
दरअसल, बदलते वैश्विक प्रकरणों को देखा जाए तो, ऐसा कह सकते है कि नए टैरिफ प्लान वाली ट्रम्पोंफोबिया दोनों देशों को आपसी संबंध सुधारने पर मजबूर कर रहा है। क्योंकि इस समय चीन की आर्थिक विकास वर्ष 1978 जैसी हो गई है, जब चीन ने स्वयं को विश्व के लिए खोलने की नीति अपनाई थी। गिरती अर्थव्यस्था को पटरी पर लाने के लिए चीन काफी मशक्कत कर रहा है। ट्रंप के नए टैरिफ प्लान ने भी न केवल चीन बल्कि अन्य देशों को भी चिंता में डाल दिया है। इससे भारत अछूता नहीं है। इसकी बात की चिंता चीन को हो रही है क्योंकि हर वर्ष अर्थव्यवस्था की स्थिति और भविष्य के लिए नीतियों पर अमूमन फैसला करने वाली चीन की सालाना सेंट्रल इकनोमिक वर्क कांफ्रेंस (सीईडब्ल्यूसी) की रिपोर्ट में अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक माहौल प्रतिकूल होने की बात तो है ही, साथ ही अमेरिका में ट्रंप सरकार द्वारा शुल्क लगाये या बढ़ाये जाने से होने वाले खतरों पर खास चिंता है।
हालाँकि, दोनों देशों के बीच संबंधों की जटिलता और मतभेदों को भविष्य की गतिविधिओं में बाधा नहीं बनना चाहिए। कहा जाता है कि कोई भी देश अपने पड़ोसियों का चयन नहीं कर सकता। एक तरफ चीन दुनिया का दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और सैन्य शक्ति देश है तो वही दूसरी तरफ भारत भी वैश्विक स्तर पर उभर रहा है और एक मजबूत आर्थिक शक्ति बन गया है। बदलते विश्विक आपूर्ति श्रृंखला ने दोनों देशों एक दुसरे के समीप आने के लिए बाध्य कर रहा है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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