हम वैश्विक स्तर पर सुपर पावर बनने की होड़ में हैं लेकिन लैंगिक असमानता आज भी हमारे समक्ष चुनौतियों के रूप में मौजूद है। यहां तक कि देश में कामकाजी शहरी महिलाएं भी लैंगिक पूर्वाग्रह व असमानता का शिकार बन रही हैं जबकि देश की प्रगति में महिला श्रमबल का बहुत बड़ा योगदान है। जो नित्य नए अनुसंधान, बौद्धिक कार्य, जोखिम भरा कार्य, राष्ट्रीय नेतृत्व आदि को पूरी ईमानदारी व निष्ठा के साथ निभा रही हैं। दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्र में लड़कियों की शिक्षा को लेकर आजादी के पहले एवं बाद में भी लड़कों की अपेक्षा उदासीनता ही देखी जा रही है। जिसका प्रभाव आज भी कमोबेश ग्रामीण अंचलों में स्पष्ट दिखता है। आज भी गरीब व पिछड़े गांव में लड़कियों की शिक्षा को लेकर सकारात्मक मानसिकता नहीं है।
देश में महिला साक्षरता की दर 64.46 प्रतिशत है जो कुल साक्षरता दर से कम है। लड़कियों का स्कूल में नामांकन कराया जाता है जो कुछ वर्षों के बाद स्कूल छोड़ देती हैं। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के अनुसार वर्ष 2018 में 15-18 आयु वर्ग की लगभग 39.4 प्रतिशत लड़कियां स्कूली शिक्षा हेतु किसी भी संस्थान में पंजीकृत नहीं हैं। इनमें से अधिकतर या तो घरेलू कार्यों में लगी हैं या भीख मांगने जैसा काम कर रही हैं। ’बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ की शुरुआत 2015 में महिला बाल विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य परिवार कल्याण तथा मानव संसाधन मंत्रालय के संयुक्त प्रयास से स्कूलों में लड़कियों की संख्या बढ़ाने, भ्रूण हत्या रोकने, स्कूल छोड़ने वाली लड़कियों की संख्या कम करने, शिक्षा के अधिकार कानून को लागू करने आदि के उद्देश्य से की गई है।
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इसी कड़ी में कस्तूरबा बालिका विद्यालय, कन्या विद्यालय, वुमेन्स कॉलेज, महिला समाख्या आदि संस्थाएं अस्तित्व में आईं जिसने पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक के अलावा आर्थिक रूप से पिछड़े परिवार के लिए बेहतरीन कार्य किया है। यूनिसेफ भी लड़कियों की गुणवतापूर्ण शिक्षा के वास्ते भारत सरकार के साथ मिलकर काम कर रही है। इस कड़ी में बिहार और झारखंड सरकार भी बालिका शिक्षा को लेकर कई महत्वकांक्षी योजनाएं चला रही है। इसके बावजूद आज भी ग्रामीण क्षेत्र में अशिक्षा, जागरूकता, गरीबी, पिछड़ेपन, रूढ़ियां आदि की वजह से लड़कियों को शिक्षा के अधिकार से अपने ही परिवार वाले महरूम रखते हैं। यह कहकर टाल दिया जाता था कि लड़कियां पढ़कर क्या करेंगी? आखिर लड़कियों को घर का ही तो कामकाज करना है।
शादी के बाद और शादी के पहले भी उन्हें चूल्हा ही जलाना है। लेकिन अब बिहार सरकार लड़कियों को पढ़ने के लिए पोशाक, किताबें, छात्रवृति, साइकिल आदि देने लगी है, तो अभिभावकों में लड़कियों को स्कूल भेजने की तत्परता भी दिखने लगी है। पंचरूखिया गांव की चंदा और सुषमा आठवीं कक्षा में पढ़ती है। वे कहती हैं कि पोशाक, किताब और छात्रवृति मिलने के कारण हमारे माता-पिता स्कूल जाने देते हैं। 75 प्रतिशत हाजिरी के बहाने गांव की लड़कियां घर की दहलीज लांघकर स्कूल की कक्षा और खेल के मैदान में सहेलियों के साथ आनंद के साथ पठन-पाठन कर रही हैं। 16 वर्षीय सोनी कहती है कि वह नौवीं कक्षा में पढ़ती है।
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आठवीं के बाद उसके पिता उसे पढ़ाना नहीं चाहते थे, परंतु जब उसने अपने पिता को बताया कि पढ़ने जाने के लिए सरकार की ओर से उसे साइकिल और पोशाक मिलेगी, तो उसके पिता ने उसका स्कूल में दाखिला कराया। गांव की कुछ लड़कियां यह भी कहती हैं कि घर से हाई स्कूल 6-7 किमी की दूरी तय करके जाना पड़ता है। पहले पैदल जाने की मजबूरी थी। लेकिन अब साइकिल मिलने से लड़कों की तरह स्कूल जाने का अनुभव महसूस होता है। गांव की वृद्ध महिला कहती हैं कि हम लोग नहीं पढ़ पाए, लेकिन सरकार की ओर से सुविधा मिलने से गांव की बेटियां पढ़-लिखकर आगे बढ़ रही हैं। हालांकि गांव के कुछ संकीर्ण सोच वाले पुरुषों का तर्क है कि लड़कियां पढ़-लिखकर क्या करेगी? (चरखा)
(यह लेखिका के निजी विचार हैं।)
-सिमरन सहनी
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