संजय मग्गू
जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने तलाक के मामले में एक फैसला दिया है, जो कि तीन साल से लंबित था। इस मामले का सबसे सुखद पहलू यह है कि हाईकोर्ट ने किसी भी महिला को तलाकशुदा या डिवोर्सी पुकारने, उसके नाम के साथ लिखने या किसी भी तरीके से तलाकशुदा जताने पर पाबंदी लगा दी है। उन्होंने सभी निचली अदालतों को निर्देश दिया है कि मामला चाहे तलाक का हो, संपत्ति विवाद का हो या किसी भी तरह का हो, महिला के नाम के साथ न तो तलाकशुदा लिखा जाएगा और न ही उसको तलाकशुदा कहकर पुकारा जाएगा। अगर किसी ने इस आदेश का उल्लंघन किया, तो उस पर जुर्माना लगाया जाएगा।
मुकदमे की सुनवाई बेंच में शामिल विनोद चटर्जी ने सच ही कहा है कि जब किसी भी मामले में पुरुष को डिवोर्सर कहकर नहीं पुकारा जाता है, तो महिला को ही डिवोर्सी क्यों लिखा और कहा जाता है? सचमुच, ऐसा चलन किसी भी महिला के लिए अपमान जनक है। जब पति और पत्नी के बीच तलाक होता है, तो तलाकशुदा दोनों हो जाते हैं, फिर तलाक का बोझ महिला ही क्यों ढोए। महिला की अपनी कोई पहचान नहीं है क्या? जिस महिला ने तलाक दिया है या उसे तलाक दिया गया है, उसकी अपनी पहचान नहीं है क्या, इस पितृसत्ताक व्यवस्था में?
एक मनुष्य की तरह महिला भी खुद में एक संप्रभु प्राणी है। वह भी उतनी ही स्वतंत्र है जितना एक पुरुष। फिर उसी के साथ यह भेदभाव क्यों? एक महिला किसी की पत्नी, बेटी, बहन या मां होने से पहले एक स्त्री है। उसका अपना नाम है, उसकी अपनी एक पहचान है। जब भी किसी महिला को इस तरह के भेदभाव का शिकार होना पड़ता है, तो उसमें हीन भावना पैदा होती है। वह अपने को कमतर समझने को मजबूर होती है।
प्रतीकात्मक चित्र
पुरुष जिस मर्दानगी पर इतराता रहता है, वह भूल जाता है कि उसकी मर्दानगी भी स्त्री की ही देन है। स्त्री ने ही उसे पैदा किया है। उसने ही नौ महीने कोख में पाल-पोसकर संसार में आने का मौका मुहैया कराया है। इस दौरान उसने कितनी असुविधा का सामना किया, कितनी पीड़ा झेली है, तब जाकर पुरुष का जन्म हुआ है। पुरुष इस बात को कैसे भूल सकता है कि यदि एक स्त्री नौ महीने के दौरान अपने बच्चे से पालन-पोषण का मूल्य मांगने पर तुल जाए तो दुनिया की अकूत संपत्ति भी शायद कम पड़ जाएगी। यहां यह सवाल मां-बेटे का नहीं, एक स्त्री और पुरुष का है। बेटा रूपी पुरुष भी तो दूसरी स्त्री के साथ अपने पिता की ही तरह व्यवहार करता है। वैसे भी हमारे देश में तलाक को एक ऐब माना जाता है। इसे अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता है। इस मामले में भी उसे ही दोषी माना जाता है, भले ही उसका दोष न हो। ऐसी स्थिति में बार-बार डिवोर्सी या तलाकशुदा कहकर अपमानित क्यों किया जाता है। यह शब्द किसी भी महिला के लिए खुलेआम दी गई गाली से कम है क्या? अब जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने एक अच्छी पहल की है, तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। सुनवाई बेंच में शामिल जस्टिस को सैल्यूट करना चाहिए कि कम से कम एक अच्छी पहल तो की।