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मिल-जुलकर आओ बसंत की खोज करें

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बसंत पंचमी पर इस बार हमें किसानों की बात करना चाहिए लेकिन हम नहीं कर रहे है। आखिर किसानों से बात करता कौन है ? किसान हैं  किस खेत की मूली ? आज हम बसंत की ही बात करना चाहते हैं क्योंकि हमारे जीवन के लिए अनिवार्य बसंत कहीं खो गया है। बसंत पंचमी के दिन यदि हमारी श्रीमती जी का जन्मदिन न होता तो मुमकिन है कि हम भी आपसे बसंत की बात नहीं कर रहे होते। मेरा तो आज एक ही आव्हान है कि -‘ मिलजुलकर आओ बसंत की खोज करें।

दरअसल जो बसंत कभी हमारे  जीवन में मौजूद था वो वर्षों पहले  कहीं खो गया है । एक जमाना था जब बसंत ‘ बागान में,बनन [वन] में बगरा [बिखरा ] पड़ा होता था। बसंत कवियों के लिए सृजन का विषय था। तुलसीदास से लेकर सेनापति और पदमाकर जैसे तमाम कवियों ने बसंत ऋतु का जो वर्णन किया है उस बसंत को यदि आज खोजने जाएँ तो हमें कोई अलग से जाँच दल बनाना पडेगा या कोई जांच आयोग बैठना पडेगा की आखिर हमारा पुराना वाला बसंत गया  कहाँ ?

Saraswati Puja

बसंत केवल एक ऋतु नहीं है। केवल माँ सरस्वती की पूजा का दिवस नहीं है। बसंत इसके अलावा भी बहुत कुछ है। ये बहुत कुछ ही अब हमारे पास नहीं है। बसंत में केवल बसंती रंग के फूल ही नहीं खिलते बल्कि और भी कुछ होता है ।विहंग गाते हैं,-नाचते हैं लतिकायें और वल्लरियाँ आपस में नेह से लिपट जातीं है। आम बौराने लगते है। पवन सुगंध से नहाकर मदमाती हुई बहती है। जीव और निर्जीव सभी कामातुर हो जाते हैं ,लेकिन आज के बसंत में ऐसा कुछ नहीं होता दिखाई देता। क्योंकि जिस धरातल पर बसंत का स्वागत किया जाता था वो ही अब . खतरे में है । अब जल,जंगल,जमीन के अस्तित्व पर खतरे मंडरा रहे हैं जबकि इस ऋतु में फूलों पर भंवरों और तितलियों के मंडराने के दिन होते हैं।

Godess Saraswati

आज भी एक पीढ़ी शेष है जो बसंत  को जानती-पहचानती है। आज की भाषा में कहें तो बसंत को बहुत ‘ मिस ; करती है। आज घरों में बच्चों को बसंती रंग के कपड़े पहनाने वाली माताएं नहीं है।  बसंती भात पकने वाली नानियाँ-दादियां नहीं हैं। अब रसोईयों से ताप और भाप नहीं कुकरों की सीटियां और संताप बाहर निकलता है। सब कुछ बदल गया है । बसंत मनाने हम प्रकृति के पास नहीं बल्कि किसी रेस्टोरेंट में जाते हैं या फिर उसे जमेटो या लाइन आर्डर देकर अपने पास बुला लेते हैं । आज के दिन हम पहले सरस्वती के साथ अपनी स्लेट -पट्टी, कॉपी-किताब,कलम दबात पूजा करते थे। अब ये सब गायब है। इनकी जगह इलेक्ट्रानिक गजेट्स ने ले ली है जिनकी पूजा नहीं कीजाती ,क्योंकि वे ‘सोफेस्टिकेटिड ‘यानि नाजुक हो जाते है।  रोली-चंदन या अक्षत लगने से वे खराब हो सकते हैं। हमारी प्रगति ही हमें बसंत सी दूर ले जा रही है ,बसंत का अंत नजदीक है।

भारत में बसंत  प्रेम का दिवस नहीं है । भारत में तो हर दिन प्रेम का दिन है । लेकिन पश्चिम में प्रेम का प्रतीक बाबा वेलेंटाइन को मान लिया गय। ये अच्छी बात है। हमारे यहां तो एक बाबा वेलेंटाइन खोजिये तो दस मिल जायेंगे। हमारे वेलेंटाइन कुछ आश्रमों में है तो कुछ जेलों में,कुछ पेरोल पर भी। हमारे यहां तो यदि समाज और सरकार चाहे तो प्रेम दिवस  के लिए मीरा,सूर, तुलसी,से लेकर किसी भी बाबा का नाम इस्तेमाल कर सकते हैं ,लेकिन नहीं करते। हमारे यहां प्रेम की पराकाष्ठा तक लोग पहुंचे है। लेकिन प्रेमियों का दर्द कौन जानता है ? मीराबाई ये शिकायत करते हुए चलीं गयीं। ‘मेरा दरद न जाने कोय ‘ हमारे  यहां प्रेमियों ने प्रेम में पड़कर लोकलाज की फ़िक्र  तक नहीं की,किन्तु दुर्भाग्य कि आज हमारे यहां ही सबसे ज्यादा दुश्मन मौजूद हैं।

दुनिया तेजी  से बदल रही है । इस तेज रफ्तार में बसंत भी बदल रहा है और प्रेम भी। मैंने भारत में बसंत को बदलते और गुम होते देखा और और पश्चिनमें बसंत को आते हुए देखा है। भारत के बाहर बसंत  का नाम ‘ स्प्रिंग’ है । इस मौसम में वहां  पेड़-पौधे अपना रूप-रंग बदलते है। सजते-संवरते है। वहां  सचमुच बागों और वनों में आज भी ‘स्प्रिंग यानि बसंत बिखरा दिखाई देता है ,क्योंकि वहां अभी भी जल,जंगल और जमीन के प्रति थोड़ी-बहुत संवेदना शेष है। हमरे यहां बसंत गया सो गया, प्रेम भी गया । उसे कुछ तो खांप पंचायतों ने ‘स-सम्मान हत्या ‘ का नाम देकर मार दिया और कुछ बजरंगियों ने अपने लाठी-डंडों से तोड़-ताड़ दिया।

दुर्भाग्य देखिये कि जिस देश  में बसंत  चौतरफा चतुरंगिनी सेना की तरह दिखाई देता था,जहाँ प्रेम ही जीवन का आधार था वहां न चतुरंगिनी  सेनाएं हैं और न प्रेम सुरक्षित है। फिल्म वाले प्रेम को रोग कहते हैं और सनातन के आदि संरक्षक प्रेम को पाप कहते हैं ,जबकि प्रेम  न रोग है और न पाप । मै सदैव से प्रेम को एक सद्गुण मानता रहा हूँ। हमें प्रेम का पाठ पढ़ाने वाले कोई प्रोफेसर मटुकनाथ नहीं बल्कि योगिराज कृष्ण रहे हैं। हम आज प्रेम के लिए नहीं कृष्ण के मंदिरों के लिए संघर्षरत हैं। प्रेम को तो हमने कभी का गला दबाकर मार दिया है। अब प्रेम न समाजों के बीच है और न सियासत में। सब जगह अदावत ही अदावत है और हम हैं की बसंत पंचमी का त्यौहार  मना रहे हैं।

मुझे कभी-कभी लगता है कि हम बसंत के संरक्षक किसानों पर जब आंसू गैस के गोले छोड़ते हैं तो उसे देखकर सरस्वती मैया दुखी हो जाती होंगीं। जब हम आदिवासियों की सरकारों को गिराने के लिए आपरेशन लोटस चलाते हैं तब हमारे आदि देवता उदास हो जाते होंगे। हमें ये कहने में कोई संकोच नहीं है कि हम बसंत हो या प्रेम दोनों मामलों में दोगला चरित्र रखते हैं। हम केवल और केवल कुर्सी प्रेमी हैं । कुर्सी के प्रेम में हम लैला-मजनू है। शीरीं-फरहाद है। शाहजहां और मुमताज है। हमें बागों में वनों में बसंत नहीं चाहिए। हमें प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री आवासों में बसंत  चाहिए और इसके लिए हम किसी भी सीमा तक जा सकते हैं अर्थात गिर सकते हैं।

प्रेम और बसंत को लेकर मै आपको बड़े-बड़े विद्वानों के कथन उद्घृत करके बता सकता था ,लेकिन मै अपने अनुभवों के अलावा किसी और का सहारा नहीं ले रहा ,क्योंकि मुझे पता है कि आपको कोई भी संदर्भ,कोई भी कथा  बसंत और प्रेम के नजदीक नहीं ले जा सकती,क्योंकि ये आत्मानुभूति के विषय हैं।आप बसंत  की खोज में वनों और बागों में नहीं जायेंगे ,आपको इन दिनों आयोध्या बुला रही है। क्योंकि वहां हाल ही में कुछ नया हुआ है जो पहले कभी नहीं हुआ था।

आप कहीं भी जाएँ,कहीं भी न जाएँ ये आपके ऊपर हैं। मेरा तो एक ही आग्रह है कि आप सियासत के भंवर से बाहर निकलकर अपने खो चुके बसंत को तलाशें  और प्रेम को रोग नहीं गुण मानकर पालें-पोसें। प्रेम की बेल को फैलने दें उसे अपने पैरों के नीचे कुचले नहीं। क्योंकि बिना बसंत और प्रेम के दुनिया में कहीं भी जीवन का कोई मतलब नहीं है। बिना बसंत  प्रेम का जीवन ‘रोबोट’ का जीवन हो सकता है ,मनुष्य जाति का नहीं।

राकेश अचल

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