रामकृष्ण परमहंस भारत के एक महान संत, आध्यात्मिक गुरु एवं विचारक थे। इन्होंने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया। उन्हें बचपन से ही विश्वास था कि ईश्वर के दर्शन होते हैं। अत: ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना और भक्ति का जीवन बिताया। स्वामी रामकृष्ण मानवता के पुजारी थे। साधना के फलस्वरूप वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं। वे ईश्वर तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं।
सन 1884 की घटना है। उन दिनों पूरे बंगाल में चैतन्य लीला नाटक की धूम मची हुई थी। लोग उस नाटक को देखने के लिए एकदम पागल हुए जा रहे थे। स्वामी रामकृष्ण परमहंस से भी उनके भक्तों ने अनुरोध किया चैतन्य लीला नाटक देखने का। स्वामी जी भी इसके लिए तैयार हो गए। वह थियेटर पहुंचे और चैतन्य लीला नाटक देखकर भाव विभोर हो उठे। उनकी आंखों से आंसू निकलने लगे। उस नाटक में कोलकाता की एक नगर वधू विनोदिनी दासी ने इतना सजीव अभिनय किया था कि लोग नाटक देखते समय भूल जाते थे कि वह नगर वधू है।
अभिनय करते समय जब उसने देखा कि इतना बड़ा संत उनका नाटक देखने आया है, तो वह नाटक खत्म होने के बाद दौड़ी-दौड़ी स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास आई और बड़े आदर के साथ प्रणाम किया। स्वामी रामकृष्ण ने विनोदिनी दासी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, बेटी! तुम्हारा अभिनय देखकर मैं अत्यंत प्रसन्न हूं। यदि तुम्हारा व्यक्तिगत आचरण भी अभिनय की तरह पवित्र हो, तो कितना अच्छा हो। यह सुनकर विनोदिनी दासी ने स्वामी जी के चरण छुए और भविष्य में शुचितापूर्ण जीवन जीने का आश्वासन दिया। उस दिन के बाद से उसका जीवन बदल गया।
-अशोक मिश्र