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बुजुर्गों की सबसे बड़ी समस्या अकेलापन, करें तो क्या करें?

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संजय मग्गू
संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि सन 2050 तक भारत में बुजुर्गों की संख्या वर्तमान से दो गुनी हो जाएगी। ऐसे में स्वाभाविक है कि युवाओं की संख्या घट जाएगी। आज भी हमारे देश में बुजुर्गों की संख्या कम नहीं है, लेकिन इन बुजुर्गों के सामने सबसे बड़ी संख्या अकेलेपन की है। गांवों और कस्बों में बुजुर्गों की हालत शहरों से बस थोड़ा सा ही बेहतर है। हालात दोनों जगहों पर बुजुर्गों के लिए सामान्य नहीं है। बुजुर्गों के सामने दो तरह की समस्याएं प्रमुख हैं। पहली आर्थिक और दूसरी अकेलेपन की। शहरों में ऐसे बहुत सारे बुजुर्ग मिल जाएंगे जिनके बेटे या बेटी अपने ही देश के किसी राज्य में या विदेश में पढ़ने चले गए हैं या फिर नौकरी ज्वाइन कर ली है। ऐसी स्थिति में बुजुर्ग मां-बाप को मजबूरन उन्हें अकेला छोड़ना पड़ा है। ऐसी स्थिति में फंसे बुजुर्ग अपना समय काटने के लिए क्या करें? उनसे बात करने, उनके दुख तकलीफ समझने वाला उनके पास कोई नहीं होता है। बुजुर्ग मियां-बीवी कितना बात करें और क्या बात करें? यह अकेलापन उन्हें और तोड़ देता है। कई मामलों में तो यह भी देखा गया है कि परिवार में कोई एक ही बुजुर्ग बचा है। ऐसी स्थिति में रहने वाले बुजुर्ग का संकट तो और भी बड़ा है। रात-विरात यदि उसे किसी किस्म की तकलीफ होती है, स्वास्थ्य से जुड़ी कोई परेशानी होती है, तो वह किससे कहे? कई घटनाएं ऐसी भी हुई हैं कि घर में अकेले रहने वाले बुजुर्ग की मौत हो गई और पड़ोसियों को तब पता चला, जब घर से दुर्गंध आने लगी। ऐसी स्थिति का सबसे पहला कारण संयुक्त परिवार का बिखर जाना है। एकल परिवार में रहने वाले बुजुर्गों की इस पीड़ा का कोई समाधान नहीं है। आज से चार-साढ़े चार दशक पहले तक संयुक्त परिवार बहुतायत में होते थे। घर-परिवार के बुजुर्ग अकेले नहीं रहते थे। उनकी देखभाल के लिए परिवार का कोई न कोई सदस्य हमेशा मौजूद रहता था। परिवार के बच्चों के साथ उनका समय बहुत अच्छी तरह से कट जाता था। बच्चे भी अपने दादा-दादी, ताई-ताऊ और अन्य बुजुर्गों के साथ खेलते-कूदते थे, उनसे कहानियां सुनते थे, उनके छोटे-मोटे काम कर देते थे, बदले में उनसे छोटे-मोटे उपहार भी पाते थे। बुजुर्गों को अकेलेपन का एहसास भी नहीं होता था। घर के छोटे-मोटे काम करने से उनकी अहमितय भी बनी रहती थी और जब वे एकदम लाचार हो जाते थे, तो परिवार उनकी देखभाल करता था, उनकी दवाइयों और अस्पतालों का खर्च भी उठाता था। लेकिन आज हालात बदल गए हैं। एकल परिवार होने की वजह से खर्च की व्यवस्था करना भी बुजुर्ग की जिम्मेदारी हो गई है। अगर पहले से कुछ बचत है, तो ठीक है, वरना तो बुजुर्ग की जिंदगी नरक ही समझो। शहरों की पाश कालोनियों में तो बुजुर्गों के प्रति लोगों में जागरूकता आई है और कालोनियों की देखभाल करने वाले बुजुर्गों के प्रति जागरूक होने लगे हैं, लेकिन सब जगह ऐसी सुविधा नहीं है। ऐसे में बुजुर्ग करें तो क्या करें, समझ में नहीं आता है।

संजय मग्गू

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