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महात्मा गांधी का सम्पूर्ण आंदोलन अहिंसा का आंदोलन ही था

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कांतिलाल मांडोत
विश्व में चारों ओर हिंसा का नग्न तांडव नृत्य  है।आये दिन समाचार पत्रों में बेगुनाह लोगों की हत्या के समाचार पढ़ने को मिलते हैं। दुनिया के अधिकांश राष्ट्र  हिंसा की आग में जल रहे हैं। आतंकवाद के आये दिन फटने  वाले बादल बेगुनाह लोगों को मौत के मुख में सुलाकर अपने किस उद्देश्य की पूर्ति करना चाहते है। यह  सम्पूर्ण मानवता के समक्ष एक प्रश्न चिन्ह बना हुआ है।हिंसा से दुनियाँ की किसी भी समस्या का निदान नहीं हुआ है। यदि विश्व में शांति का दीपक जल सकता है तो उसके लिए प्रत्येक प्राणी को अहिंसा का सहारा लेना पडेगा।आज दुनियाँ में धर्म के नाम पर जितना खून बहाया जा रहा है उतना पहले कमी भी नहीं बहाया गया।
जब व्यक्ति विवेकशून्य हो जाता है तभी वह शस्त्र का सहारा लेता है। यह सामने  वाले को तो चिर निद्रा में सुला ही देता है, पर जीवित रहने वाले को कभी चैन की  नींद नहीं सोने देता। यदि हम धर्मशास्त्रों का अध्ययन करें तो यह देखेंगे कि विश्व के सभी धर्मों ने अहिंसा को अपना आश्रय चुना है। ईसा ने हिंसा को रोकने के लिए ही अपने आपको शूली पर चढ़ा दिया। मुहम्मद हिंसा को रोकने के लिए  मक्का से मदीना चले गये। गांधी को गोलियाँ खानी पड़ीं लेकिन उन्होंने हिंसा का सदैव प्रतिरोध किया।
अहिंसा जैनत्व का प्राण-तत्त्व है। उसके शब्द-शब्द में दया का सागर लहरा रहा है। जैन सन्तों के साथ-साथ गृहस्थ को भी अहिंसा को अपनाने हेतु प्रेरित किया गया है। उसे मन, वचन और कर्म से अहिंसा का पालन करने को कहा जाता है। आज किसी की हत्यां ही हिंसा नहीं है। यदि हम क्रोध व घृणा का सहारा लेते हैं तो व्यह भी हिंसा का ही प्रारम्भिक रूप है। जिस व्यक्ति के मन में अहिंसा की भावना जागृत हो जाती है वह स्वयं के साथ-साथ अपने विरोधी की भी मंगल कामना करने लगता है। एक हिंसक अपने स्वार्थ के लिए बिना आगे-पीछे सोचे खून बहाने को तैयार हो जाता है।वह क्रोध ,घृणा,वैमनस्य और भय के वातावरण में अपने विवेक चक्षु खो बैठता है,मगर अहिंसक विचारधारा से ओतप्रोत मानव विवेक का त्याग नही करता।
महात्मा गांधी का सम्पूर्ण आंदोलन अहिंसा का आंदोलन ही था।वे अपने आंदोलन को सत्याग्रह के नाम से चलाकर भारत को आजादी के सुनहरे आलोक में लाने मे कामयाब हुए।उन्होंने विश्व समुदाय के समक्ष इस अणु युग मे एक आदर्श स्थापित किया।जिसे आज का मानव कहानी कथा का रूप देता  है।इतिहास के पृष्ठों को पलटकर देखा जाए तो महर्षियों, महामुनियों द्वारा स्वर्णकारों से संजोया गया सपना भारत का प्राचीन साहित्य आज भी अहिंसा के दीपो से जगमगा रहा है।
महाराज शान्तनु का विवाह गंगा से हुआ था। विवाह पूर्व ही गंगा ने शान्तनु से  वचन लिया था कि आपको मेरी आज्ञा पालन करने का वचन देना होगा। शान्तनुनी को वचन दे दिया कि जैसा आप कहोगी वही में करूंगा। विवाह के पश्चात गंगा ने कहा- महाराज आज के बाद आप आखेट नहीं करेंगे। आपको मेरी यह आज्ञा पालन करनी है। यदि आपने मेरी आज्ञा तौड़ी तो मैं आपका साथ त्याग दूँगी। राजा शान्तनु गंगा के इस दया भाव व अहिंसक विचार से बड़े प्रभावित हुए।भीष्म के जन्म के पश्चात् सामन्तों ने राजा शान्तनु को आखेट करके मनोरंजन करने की सलाह दी। महाराज शान्तनु बहाना बनाकर जंगल में आखेट हेतु निकल गये। सामन्तो के साथ उन्होंने वर्षों बाद वन्य जीवों का आखेट किया। सन्ध्या को वे जब महलो में लौटे तो उन्हें पता चला कि महारानी ने महल और महाराज का त्याग कर दिया है। वह पुनः अपने पिता के पास चली गई।
महाराज शान्तनु ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ी थी। उन्होंने अहिंसा के स्थान पर हिंसा सहारा लिया, निर्दोष जीवों की हिंसा की और उसका परिणाम उन्हें भोगना पड़ा। अपनी प्राण-प्रिया उनसे दूर चली गई। गंगा के मन में उमड़ा हुआ अहिंसा भाव राज-सुखों से भी अधिक आनन्द देने वाला था। वह अपने वचन पर कायम रहकर पति का भी त्याग कर गई। हस्तिनापुर का राजमहल बिना महारानी के खाली-खाली लगने लगा। महाराज शान्तनु ने अपनी भूल स्वीकार करके पुनः गंगा को मनाने का प्रयास किया। मगर वह वचन तोड़ने के कारण वापस हस्तिनापुर के महलों में नहीं आई। महाराज शान्तनु को उनकी आखेटप्रियता उम्र भर के लिए बेचैन बना गई। यही है सच्ची अहिंसा का आदर और अहिंसा प्रेम।इस पौराणिक कथा से हमे समझ मिलती है कि रानी ने सबकुछ त्याग दिया,लेकिन हिंसा करना स्वीकार नही था।

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