भारतीय इतिहास में दो अक्टूबर का दिन अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है। आज के दिन जिस महा पुरुष ने जन्म लिया वह साधारण मानव ही था, किन्तु उस दुबली-पतली-सी काया में असाधारण आत्मबल, अद्भुत मनोबल का एक पूंजीभूत प्रकाश छिपा था जिसकी प्रकाश किरणों ने दासता दुर्बलता, अज्ञान और अशिक्षा के घनीभूत अंधकार को चीर कर सम्पूर्ण एशिया खंड में आलोक भर दिया। भारतीयों के जीवन के सुप्त आत्म विश्वास को जगा दिया। उसने सिद्ध कर दिया कि हिंसा, आतंक, लूट और भय पर टिकी सत्ता, बन्दूक, तलवार और बमों के बल पर भोली प्रजा का शोषण करने वाली विदेशी ताकत अहिंसा और सत्य, देशप्रेम और आत्म-बलिदान की महाशक्ति के समक्ष टिक नहीं सकती।
गांधीजी के विचार, उनकी दिनचर्या और उनके दैनिक कार्य किसी को पसंद है या नहीं है। लेकिन महात्मा गांधी को जानना ही पड़ेगा। मेरा धर्म सत्य और अहिंसा पर आधारित है। सत्य मेरा भगवान है। अहिंसा उनसे मिलने का साधन है। गांधी को पढ़े बिना उनकी आलोचना करना आज फैशन बन गया है। जिन लोगों ने गांधी की जीवनी को पढ़ा है, वे सोचने के लिए मजबूर हो गए।
उनका जीवन तो राष्ट्र के लिए प्रकाशपुंज बना ही किन्तु केवल गाँधी जी के निकट रहने वालों का, उनके क्षणिक संपर्क में आने वालों का जीवन भी उनके सद्विचारों की सुगंध से महकने लगा था। गुजरात के पोरबन्दर शहर में एक धार्मिक गुजराती परिवार में दो अक्टूबर 1869 के दिन जिस तेजस्वी बालक का जन्म हुआ उसका नाम था मोहनदास। लोग उसे मोहनदास करमचन्द गाँधी के नाम से जानने लगे।
बालक मोहनदास जन्म से ही कुछ विलक्षण गुणों का पुंज था। माता-पिता के संस्कार, परिवार के वातावरण से प्रभावित होकर उसमें जन्म से ही सत्यनिष्ठा, ईमानदारी, कर्तव्य भावना और संकल्पशीलता के सद्गुणों का विकास हुआ। यों तो माता के गर्भ से सभी व्यक्ति एक शिशु के रूप में जन्म लेते हैं। जन्म लेते ही कोई महापुरुष या बड़ा आदमी नहीं होता। बात यह है कि बड़ा आदमी जन्म लेता नहीं, बनता है।
गाँधीजी एक बार उड़ीसा की यात्रा कर रहे थे। वहाँ उन्होंने एक गरीब स्त्री को देखा, जिसका कपड़ा बहुत ही मैला और फटा हुआ था कपड़ा भी इतना छोटा था कि उससे उस महिला का केवल आधा शरीर ही ढका जाता था। गाँधीजी ने कहा- ‘बहिन! तुम अपने कपड़े धोती क्यों नहीं? इतना आलस्य क्यों करती हो कि कपड़ा इतना मैला रहे? उस स्त्री ने सलज्ज दृष्टि से बापू की ओर देखा और कहा-‘इसमें आलस्य की बात नहीं है श्रीमन! मेरे पास इसके अलावा कोई दूसरा कपड़ा ही नहीं है जिसे पहनकर मैं इसे धो सकूँ।’
उस स्त्री का यह कथन सुनकर गाँधीजी की आत्मा द्रवित हो उठी और वे मन-ही-मन कह उठे- ‘हाय! आज मेरी भारत माता के पास पहनने को चिथड़े तक नहीं हैं।’ उसी समय गाँधीजी ने यह प्रतिज्ञा की कि जब तक भारत स्वतन्त्र नहीं हो जाता और गरीब आदमी को भी देह ढकने के लिए पर्याप्त कपड़ा नहीं मिलता, तब तक मैं कपड़ा नहीं पहनूँगा। लाज ढकने के लिए अपने पास एक लंगोटी रखना काफी होगा और गाँधीजी ने उसी समय अपनी परम्परागत पोशाक का परित्याग कर दिया।
घटनाएँ समुद्र में उठती तरंगें हैं। तरंगें उठती और मिट जाती हैं, किन्तु कभी-कभी तरंगें तूफान या ज्वार भाटा का रूप लेती हैं तो समूचे समुद्र को मथ डालती हैं। कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं जो जीवन के सम्पूर्ण व्यवहार को बदल देती है। सत्य-अहिंसा की प्रयोगशाला गाँधीजी के अनुकरणीय गुणों का, उनके जीवन-दर्शन का, वस्तुत: गाँधीवाद का वर्णन किया जाए तो एक बड़ा ग्रंथ भी छोटा पड़ेगा। गाँधीजी का जीवन सत्य-अहिंसा-प्रेम की एक जीती-जागती प्रयोगशाला थी।
भगवान महावीर के ढाई हजार वर्षों के बाद उनकी अहिंसा को जितनी सूक्ष्मता और सार्वभौमता के साथ गाँधीजी ने समझा और समझकर जीवन में प्रयोग किया, अहिंसा की अजेय शक्ति से संसार को परिचित कराया। अकेले गाँधी ने भारत की सुप्त आत्मा को जगा दिया। देश की अस्मिता को प्रचण्ड बना दिया। अकेली एक चिनगारी ने ब्रिटिश सत्ता के महावन को जलाकर राख कर डाला।
कांतिलाल मांडोत