फरीदाबाद जिले में 2 फरवरी से शुरू हुआ 37वां अंतर्राष्ट्रीय सूरज कुंड मेला अपने समापन की ओर बढ़ रहा है। अब तक लाखों लोग सूरजकुंड मेले में शामिल होकर इसकी शोभा बढ़ा चुके हैं। देश-विदेश से आने वाले शिल्पकारों, कलाकारों और सांस्कृतिक कर्मियों ने मेले में चार चांद लगा दिए हैं। पिछले नौ सालों से मनोहर सरकार ने जिस कुशलता से मेले का प्रबंधन किया है, उसने मेले को अंतर्राष्ट्रीय लोकप्रियता दिला दी है। पिछले नौ सालों में कई देशों के हजारों कलाकार और शिल्पी भाग ले चुके हैं। अफ्रीकी देशों के कलाकारों ने भी इस बार भारी संख्या में भाग लिया है। वर्ष 1987 से हर साल अंतर्राष्ट्रीय मेला दसवीं सदी में तोमर वंश के राजा सूरज पाल द्वारा बनवाए गए रंगभूमि की जगह पर मनाया जाता है।
यहां उन्होंने सूर्य की उपासना के लिए एक रंगभूमि का निर्माण किया था। इसके पास में ही बने कुंड को उन्हीं के नाम पर सूरज कुंड नाम दिया गया है। दसवीं सदी में बनवाई गई रंगभूमि की शैली यूनानी है। शानदार स्मारक की पृष्ठभूमि में आयोजित भारत की सांस्कृतिक धरोहर सूरज कुंड मेले की भव्यता और विविधता का जीता-जागता प्रमाण है। इस मेले को अंतर्राष्ट्रीय मेले के रूप में मान्यता वर्ष 2013 में मिली थी। वर्ष 2013 में सूरजकुंड शिल्प मेले को अंतर्राष्ट्रीय मेले का दर्जा दिए जाने से इसके इतिहास में एक नया कीर्तिमान स्थापित हुआ। अंतर्राष्ट्रीय सूरज कुंड मेला हमारी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति का जीता जागता उदाहरण है। कई शताब्दियों पूर्व हमारे देश में हाट-बाजार और मेलों की समृद्ध परंपरा रही है। देश के प्रत्येक राज्य के हर जिले में हाट और मेले लगते रहे हैं।
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प्राचीन काल में शायद ही कोई कस्बा या जिला ऐसा बचा हो जिसमें लगभग हर सप्ताह कोई न कोई बाजार या मेला नहीं लगता रहा हो। ये मेले-ठेले हमारे पूर्वजों की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति में महत्वपूर्ण भूमिका तो निभाते ही थे, यह दूर संचार का साधन भी हुआ करते थे। इन मेलों-हाट-बाजारों में लोग अपनी जरूरत की वस्तुओं को खरीदने या बेचने के लिए जाया करते थे। किसान अपनी उपज को बेचने इन्हीं हाटों और मेलों में आया करते थे। अपनी उपज बेचने के बाद वे अपनी जरूरत की चीजों को खरीदते थे। इसी दौरान उनकी मुलाकात भी अपने नाते-रिश्तेदारों से हो जाया करती थी। मेले में आने वाले लोग सबसे मिलकर उनका हालचाल जान लेते थे।
महिलाएं और पुरुष इन मेलों-हाटों में अपने प्रियजनों से मुलाकात करने भी आया करते थे। इससे एक गांव की सूचनाएं दूसरे गांवों तक पहुंच जाती थीं। हाट-मेले न केवल आवश्यक वस्तुओं की खरीद-बिक्री का माध्यम होते थे, बल्कि विभिन्न संस्कृतियों के आदान-प्रदान का भी माध्यम होते थे। यह समृद्ध परंपरा अभी कुछ दशक पहले तक विद्यमान रही, लेकिन आधुनिकता के चलते हाट-मेलों पर ग्रहण लगता गया और मेले खत्म होते गए। मनोहर सरकार ने अपनी पुरातन परंपरा को जीवित करने का सार्थक प्रयास किया है।
-संजय मग्गू
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