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नक्सलवादियों-माओवादियों को मुख्यधारा से जोड़ने का हो प्रयास

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कांतिलाल मांडोत
देश में नक्सलवाद की समस्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। यह समस्या देश में कई दशकों पुरानी है। नक्सलवादी अभी तक देश-दुनिया की अर्थव्यवस्था को समझ नहीं पाए हैं। जब पूरी दुनिया में पूंजीवादी व्यवस्था अपनी मरणासन्न अवस्था की ओर अग्रसर है, तब देश के नक्सली और माओवादी भारतीय अर्थव्यवस्था को अर्ध सामंती और अर्ध पूंजीवादी मानकर आचरण कर रहे हैं और पुलिस-सेना पर हमले कर रहे हैं। हालांकि पिछले छह सात दशक में पुलिस की मुठभेड़ में न जाने कितने नक्सली मारे जा चुके हैं। इस वर्ष ही 225 से ज्यादा नक्सलियों का खात्मा हो चुका है। ऐसी स्थिति में उचित यही है कि इन नक्सलियों को समझा-बुझाकर समाज की मुख्यधारा में लाने का प्रयास तेजी से किया जाए।
1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से नक्सलवाद का जन्म हुआ था। तब से लेकर आज तक हजारों निर्दोष लोगों की मौत हो चुकी है। नक्सलबाड़ी में भूमि माफियाओं के खिलाफ शुरू हुआ यह आंदोलन आज देश की केंद्र और कई राज्य सरकारों की नाक में दम कर रहा है। यह बात सही है कि देश में शिक्षा के क्षेत्र में अच्छी प्रगति हुई है। सरकार अरबों रुपये शिक्षा पर खर्च कर रही है। लेकिन नक्सली क्यों बनते हंै, इस पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। इसके कारणों की खोज नहीं की जा रही है। आखिरकार नक्सली अपने ही समाज के अपने ही भाई को मारकर क्या हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं। भारत मे नक्सलवादी आंदोलन के जनक कानू सान्याल थे जिन्होंने 1967 में नक्सलवादी आंदोलन को जन्म दिया था।
आज नक्सलवादी संगठन भारतीय सेना के जवानों की नींद हराम कर रहे हैं। माओवादी विचारधारा पर एक दृष्टिपात किया जाए तो माओवाद स्वतंत्र चीन के पहले नेता माओत्से तुंग की विचारधारा से प्रभावित है। सशत्र विद्रोह, जन संगठन तथा राजनीतिक गठबंधनों के माध्यम से राज्य की सत्ता को हथियाने का एक माध्यम है। आतंकवाद माओवाद और नक्सलवाद एक ही सिक्के के पहलू है। देश को अस्थिर करने और जनता के साथ खूनी खेल खेलकर जवानों पर हमला कर जंगलों में छुपने जैसे कार्य करते हैं। यह समाज को खोखला करने के लिए पर्याप्त है। माओवादी अपने विद्रोह के सिद्धांत को अन्य संगठनों के साथ मिलकर प्रयोग में लाते हैं। भूमि अधिग्रहण को लेकर सबसे पहले आवाज नक्सलियों की ही उठी थी।
नक्सलवादी नेताओं का मानना है कि जमीन उसी की जो उस पर खेती करता है। नक्सलियों से समाज और राजनीतिक क्षेत्र में अराजकता फैलती है जिसके दुष्परिणाम देश देख रहा है। छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के बीहड़ों में नक्सलवादियों ने अनेक निर्दोष जवानों का खून बहाया है। वहीं, पुलिसकर्मियों के हाथों  सैकड़ों नक्सली ढेर हुए हैं। आंध्र प्रदेश से लेकर पश्चिम बंगाल तक एक लाल गलियारा था जिस पर नक्सलियों का प्रभाव रहा है। इन दोनों राज्यों के बीच आने वाले प्रदेश भी नक्सली आंदोलन से पीड़ित रहे हैं। हजारों लोगों के खून से यह पूरा इलाका लहूलुहान होता रहा है। हालांकि अब कुछ इलाकों में नक्सलियों और माओवादियों को का प्रभाव कम होता जा रहा है।
पश्चिमी बंगाल से कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई। उस समय पश्चिम बंगाल में नक्सलियों का पूरा प्रभाव था। सरकार से संघर्षरत विद्रोह उग्रवादी समूहों ने कई वर्षों से केंद्र सरकार की नाक में दम कर रखा था। दो दिन पूर्व बीजापुर में नक्सलियों ने भाजपा नेता सहित पांच लोगों को मार दिया। ऐसी स्थिति में उचित यही है कि केंद्र और राज्य सरकारें इन नक्सलवादी और माओवादी संगठनों के नेताओं से बातचीत करे। वह उन्हें समझाए कि निर्दोष लोगों का रक्त बहाने से कुछ हासिल नहीं होने वाला है। नक्सलियों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए सरकार की तरफ से कई तरह की सुविधाएं दी जा रही है ताकि गरीब घरों के बच्चे नक्सली बनने से बचे। सरकार जीरो टॉलरेंस की नीति पर काम कर रही है। नक्सलवाद देश की बड़ी समस्या है जिससे निपटना जरूरी है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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