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नीतीश ने पाला बदलकर हिला दीं विपक्षी एकता की जड़ें

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आखिर बिहार में नीतीश और उनके जदयू ने विपक्ष के गठबंधन इंडिया से अपना नाता तोड़ लिया। नीतीश कुमार विपक्षी दलों के गठबंधन इंडिया अलायंस के सूत्राधार रहे हैं। उन्होंने ही भाजपा के विरूद्ध विपक्ष को एकजुट करने की शुरुआत की। एक दूसरे के धुर विरोधी दलों को एक साथ बैठाया, ऐसे में उनके पलटी मार देने से इस गठबंधन को लेकर भी सवाल खड़े होने लगे हैं। नीतीश को बिहार का पलटू राम कहा जाता है। पलटू राम इस बार पलटीमार कर विपक्ष की एकता की जड़ें ही हिला गए। उनके भाजपा के साथ जाने से जनता में साफ संदेश गया कि ये एका सिद्धांत का नहीं स्वार्थ का था। नीतीश की इच्छा विपक्ष के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने की थी। उसमें असफल होने और अपने प्रदेश में हुए घटनाक्रम के कारण वे अपनी मुख्यमंत्री की कुर्सी बचाने के लिए भाजपा के साथ चले गए।

नीतीश कुमार ने खुद विपक्षी दलों को एकजुट करने में पिछले कई माह काफी मेहनत की थी। उन्होंने शुरुआत में ऐसे दलों को कांग्रेस के साथ बिठाने में कामयाबी हासिल की जो राहुल गांधी और उनकी पार्टी को लेकर सवाल उठाते रहे थे। नीतीश कुमार पश्चिम बंगाल में सरकार चला रहीं ममता बनर्जी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव को साथ लाने में कामयाब रहे। पटना में गठबंधन की पहली बैठक कराने को भी उनकी कामयाबी माना गया। दूसरी बैठक के बाद से ही नीतीश कुमार के असहज होनी की चर्चा शुरू हो गई।

तब कांग्रेस फ्रंट फुट पर आती दिखी। रिपोर्टों में दावा किया गया कि गठबंधन संयोजक न बनाए जाने से वो नाखुश हैं। विपक्षी गठबंधन का नाम इंडिया रखने को लेकर भी मीडिया रिपोर्टों में कहा गया कि नीतीश कुमार ने शिकायत की थी कि उनसे सलाह नहीं ली गई। उनका मानना था कि इंडिया में एनडीए आता है, इसलिए यह नाम न रखा जाए, किंतु उनकी नहीं सुनी गई। हालांकि, नीतीश कुमार ने अपनी नाराजगी की रिपोर्टों को खारिज कर दिया था। रविवार को बीजेपी की अगुवाई वाले गठबंधन एनडीए के साथ जाने का फैसला करने के बाद खुद नीतीश कुमार ने अपनी असहजता को साफ बयां किया कि कुछ ठीक नहीं चल रहा था।

दरअसल वह चाहते थे कि उन्हें गठबंधन का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाए, किंतु 19 दिसंबर को हुई इंडिया गठबंधन की बैठक में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए सुझाने पर उन्होंने कोई प्रतिक्रिया तो नहीं दी, किंतु उनका गठबंधन से मन उचटने लगा। उन्हें लगने लगा कि कांग्रेस विपक्षी गठबंधन पर हावी होना चाहती है। राहुल की भारत न्याय यात्रा ने इस विद्रोह में आग में घी का काम किया। कायदे ये यात्रा उन प्रदेशों में निकलनी चाहिए थी, जहां कांग्रेस की सरकार हैं। विपक्षी दलों के सरकार वाले प्रदेश में स्थानीय दल की मर्जी से उसे साथ लेकर ये यात्रा की जानी चाहिए थी। किंतु ऐसा नहीं हुआ।

बंगाल में यात्रा पहुंचने पर ममता बनर्जी को लगा कि उन्हें कमजोर करने के लिए उनके प्रदेश से यात्रा निकाली जा रही है। जरा-जरा सी बात पर नाराज होने वाली ममता इस यात्रा के बंगाल में आते ही उछल गईं। उन्हें लगा कि राहुल और कांग्रेस इसके माध्यम से उन्हें कमजोर करना चाहती है। सो उन्होंने बंगाल में अकेले अपने बूते पर पूरे प्रदेश में चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। इसके बाद यात्रा बिहार में भी आनी थी।

बिहार में नीतीश को अपने सहयोगी रहे लालू यादव के रवैये से लगा कि वह उनकी पार्टी में तोड़फोड़ करना चाहते हैं। दरअसल नीतीश कुमार के इस पलट के पीछे उनकी पार्टी में चल रही राजनीति थी। नीतीश कुमार को पिछले महीने इसकी भनक तब लगी, जब पार्टी के कुछ विधायकों ने पार्टी लाइन से हटकर मीटिंग की थी। इसके साथ ही नीतीश ने तेजी दिखाते हुए ललन सिंह को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटा दिया था तथा खुद पार्टी के अधयक्ष बन गए थे। तभी से कयास लगाए जा रहे थे कि उनकी पार्टी में सब कुछ सही नही चल रहा है और उनके और लालू यादव के रास्ते अलग होने वालें हैं। लालू यादव नीतीश पर दबाव दिए थे कि वे तेजस्वी को मुख्य मंत्री बनाए।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

-अशोक मधुप

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