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भारत में भी नौकरियों पर खतरा बनकर मंडराने लगा चैटबॉक्स

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इसी साल जुलाई में बेंगलुरु के स्टार्टअप ने अपने 90 फीसदी स्टाफ की जगह एआई चैटबॉट रख लिया। अब कंपनी के मालिक सुमित शाह ने बहुत उल्लास से ट्वीट किया है कि एआई चैटबाट से उनका 85 फीसदी खर्च बच गया और कस्टमर्स का रिस्पांस भी बढ़िया है। लोग एआई चैट बॉट की सर्विस को पसंद कर रहे हैं। यह तो एक बानगी है। भारत में भी धीरे-धीरे चैटबॉट का चलन बढ़ रहा है। ओपन एआई के टूल चैट जीपीटी ने कुछ महीनों पहले बहुत सारी सुर्खियां बटोरी थीं। अब एआई कंपनियां विभिन्न क्षेत्रों की आवश्यकतानुसार चैटबॉट विकसित कर रही हैं।

अभी पिछले हफ्ते की ही बात है, ब्रिटिश बोर्डिंग स्कूल काट्समोर ने अबिगेल बैली को अपनी नई प्रिंसिपल हेड टीचर नियुक्त किया है। यह अबिगेल बैली कोई इंसान नहीं हैं। सरल शब्दों में कहें तो यह एक किस्म का रोबोट है यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस चैटबॉट। इसी स्कूल ने जेमी रेनर को नियुक्त किया है जो एआई तकनीक के हेड होंगे। जेमी भी एआई चैटबॉट हैं। ब्रिटेन में पिछले कुछ दिनों से एआई चैटबॉट का उपयोग बढ़ा है। यह पूरी दुनिया में हो रहा है। नई दिल्ली की एक वकील ने एआई चैटबॉट को क्लाइंट का नाम, मामले की थोड़ी जानकारी और हर्जाना आदि के बारे में बताकर नोटिस तैयार करने को कहा।

अब वह वकील चितिंत है क्योंकि चैटबॉट की भाषा, व्याकरण और कानूनी शब्दावली का उपयोग करके चैटबॉट ने जो नोटिस तैयार की, वह उस वकील द्वारा तैयार की गई नोटिस से बहुत बेहतर थी। अब वह वकील डरा हुआ है, अपने भविष्य को लेकर। वह इस बात को लेकर चकित है कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) वाले टूल कैसे पलक झपकते ही कानूनी भाषा में कॉन्टेंट तैयार कर सकते हैं। सचमुच पूरी दुनिया के सामने एक संकट मंडरा रहा है। क्या होगा, जब देश-विदेश की हर कंपनी, स्टार्टअप, कल-कारखानों में जब एआई टूल्स काम करते हुए नजर आएंगे। भारत भी इस खतरे से अलग नहीं है। जब बेंगलुरु की कंपनी प्रयोग के तौर पर ऐसा कर सकती है, तो बाकी कंपनियों का हाथ कौन पकड़ सकता है। अभी तक कल-कारखानों और उद्योगों के मालिकों के सामने मजबूरी यह थी कि मानव शरीर से उसका श्रम खींचकर निकाला नहीं जा सकता था। ठीक रक्त की तरह।

इंसान को मजदूर, लिपिक, मैनेजर आदि के रूप में भर्ती करना यह कंपनी या कारखाना मालिकों की मजबूरी थी। लेकिन जब इंसान का बेहतर विकल्प उनके सामने मौजूद हो, तो वे इंसान को क्यों चुनेंगे। जाहिर सी बात है कि आज पूरी वैश्विक व्यवस्था पूंजीवादी है। मुनाफे के लिए हर वस्तु का उत्पादन होता है। लेकिन पूंजीपति शायद एक बात भूल रहे हैं कि दुनिया में जितने भी उत्पाद हैं, उनका बहुसंख्यक उपभोक्ता आम जनता है। जब आम जनता के पास बेरोजगारी के चलते क्रय शक्ति नहीं होगी, तो उनके उत्पादों को खरीदेगा कौन? यही इस पूंजीवादी व्यवस्था का अंतरद््वंद्व है। जैसे-जैसे बेरोजगारी, भुखमरी बढ़ेगी, व्यवस्था अति उत्पादन के संकट से जूझने लगेगी।

बस, इसी बिंदु पर आकर थोड़ी सी आस बंधती है कि शायद यह व्यवस्था इंसान की कीमत पर एआई टूल्स को महत्व न दे। लेकिन यदि पूंजीपति नहीं माने तो…?

संजय मग्गू

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