अशोक मिश्र
अगर यह कहा जाए कि हरियाणा में कांग्रेस को कांग्रेस ने हरा दिया, तो शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी। वैसे शिव सेना उद्धव गुट के समाचार पत्र सामना में ठीक ही लिखा गया है कि जीती हुई बाजी हारने का हुनर सिर्फ कांग्रेस को आता है। हरियाणा में कांग्रेस ने जीती हुई बाजी हार कर यह साबित भी कर दिया। हरियाणा हारकर कांग्रेस ने सिर्फ एक राज्य ही नहीं खोया है, बल्कि उसने आगे की संभावनाएं भी धूमिल कर दी हैं। जो उत्साह, जो माहौल देश में कांग्रेस के पक्ष में बनता हुआ दिखाई दे रहा था, वह सब चौपट हो गया। अब तो महाराष्ट्र, झारखंड और दिल्ली में भी कोई गुंजाइश नहीं दिखाई दे रही है। महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी में शामिल शिवसेना (उद्धव गुट) और शरद पवार वाली राकांपा भी आंख दिखाने की स्थिति में आ गई है। शिवसेना उद्धव गुट के नेताओं ने तो अभी से कहना शुरू कर दिया है कि यदि कांग्रेस को अकेले लड़ना है, तो अभी से बता दे।
हरियाणा में कांग्रेस के हाईकमान और प्रदेश के नेताओं ने विधानसभा चुनाव को बहुत हलके में लिया। जैसे उन्होंने मान लिया था कि उनकी जीत पक्की है, वे चाहे जैसा बरताव आपस में करते रहें। भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने अपने सबसे ज्यादा समर्थकों को टिकट दिलाकर यह जाहिर करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी, प्रदेश कांग्रेस के वे सबसे बड़े नेता हैं। वे जो चाहेंगे, वही होगा। बाप-बेटे को पूरे चुनाव प्रचार के दौरान सिर्फ सीएम की कुर्सी ही दिखाई देती रही। मैं न टायर्ड हूं, न रिटायर्ड की गर्वोक्ति आखिरकार पूरे कांग्रेस को ले डूबी। कांग्रेस में जिस तरह गुटबाजी और बयानबाजी मतदान के दो तीन दिन पहले तक होती रही, उससे ही जाहिर हो गया था कि कांग्रेस की नैया खुद कांग्रेसी ही डुबोने पर तुले हैं। कांग्रेस की सबसे बड़ी दलित नेता और सिरसा की सांसद कुमारी शैलजा भी लगभग पंद्रह दिन तक नाराज होकर घर बैठी रहीं। मैं डिप्टी सीएम नहीं बनूंगी का उद्घोष करने वाली कुमारी शैलजा और अपने आपको हरियाणा कांग्रेस का भाग्य विधाता समझने वाले पिता-पुत्र ने थोड़ा पार्टी के भले की बात सोचकर अपने-अपने अहम को दरकिनार करके चुनाव लड़ा होता तो शायद आज परिदृश्य दूसरा होता। कांग्रेस के नेता आपस में ही लड़ते रहे और भाजपा उनके इस विवाद को हवा देती रही।
जब कांग्रेस के ही एक कार्यकर्ता ने कुमारी शैलजा के प्रति अशिष्ट बातें कही, तो भाजपा ने इस बात को लपक लिया। तब भी कांग्रेस नेताओं की आंख नहीं खुली। वे एक दूसरे के साथ आने के बजाय अपने-अपने अहंकार को सहलाते रहे। राहुल गांधी की अंबाला के नारायणगढ़ से शुरू हुई रथ यात्रा में शामिल होने के बाद प्रदेश कांग्रेस के दोनों ध्रुव फिर एक साथ नहीं आए।
नतीजा सामने है। भाजपा ने माइक्रो मैनेजमेंट से अपने खिलाफ बह रही हवा को बहुत शांतिपूर्ण तरीके से साध लिया। पीएम नरेंद्र मोदी ने पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल के खिलाफ बह रही हवा का रुख पहले ही भांप लिया था। यही वजह है कि उन्होंने मनोहर लाल को मुख्यमंत्री पद से हटाने में तनिक भी देर नहीं लगाई। कांग्रेस में ठीक इसका उलटा होता है। कांग्रेस हालात के बद से बदतर होने तक का इंतजार करती है। राजस्थान में सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच चल रहे संघर्ष का कोई सटीक समाधान नहीं निकाला। नतीजा यह हुआ कि राजस्थान हाथ से निकल गया। मध्य प्रदेश में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह माहौल होने के बाद भी कांग्रेस को ले डूबे। नतीजा यह हुआ कि मध्य प्रदेश में भी सरकार नहीं बनी। छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और टीएस सिंह देव में चल रहे मनमुटाव से कौन नहीं वाकिफ था, लेकिन कांग्रेस आलाकमान आंखें मूंदे रहा। छत्तीसगढ़ भी हाथ से निकल गया। यही हाल हरियाणा में रहा। भूपेंद्र सिंह हुड्डा, कुमारी शैलजा और रणदीप सिंह सुरेजावाला अपनी-अपनी ढफली अपना-अपना राग गाते रहे। मैं बनूंगा मुख्यमंत्री, मैं बनूंगा, मुख्यमंत्री को मंत्र की तरह दोहराते रहे। कांग्रेस आला कमान को दिखाई नहीं दिया। अब बन जाओ सभी लोग मुख्यमंत्री। जब तक निजी हित पार्टी हित पर हावी रहेगा, ऐसा ही होता रहेगा।
अशोक मिश्र