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हरियाणा में पराजय का ठीकरा किसके सिर फूटेगा?

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संजय मग्गू

हरियाणा में मिली पराजय का ठीकरा किसके सिर पर फूटेगा? भूपेंद्र सिंह हुड्डा या राहुल गांधी के सिर पर? इस सवाल का जवाब आसान नहीं है। वैसे देखा जाए, तो विधानसभा चुनाव हारने के लिए पूरी तरह तो नहीं, लेकिन अस्सी प्रतिशत हुड्डा जिम्मेदार हैं। कांग्रेस हाईकमान ने उन्हें पूरी छूट दी। उनके नब्बे में से बहत्तर समर्थकों को टिकट दिया। हुड्डा ने जिसको टिकट देने को कहा, हाई कमान ने मान लिया। पूरे विधानसभा चुनाव का नेतृत्व पूरी तरह से हुड्डा के हाथ में था, तो इसकी पूरी जिम्मेदारी हुड्डा की ही होनी चाहिए। ऐसी स्थिति में यदि कांग्रेस आला कमान भविष्य के लिए गंभीर होगा, तो सबसे पहले उसे आंतरिक गुटबाजी को पूरी तरह खत्म करना होगा। दोनों-तीनों पक्षों को बुलाकर साफ-साफ कहना होगा कि अब या तो सुधर जाओ या फिर निकल जाओ। जब शरीर के किसी अंग में हुआ फोड़ा दुख देने लगे, पूरे शरीर को प्रभावित करने लगे, तो चीर-फाड़ बहुत जरूरी हो जाती है। नए लोगों को आगे लाना होगा। युवाओं को नेतृत्व देकर ही प्रदेश में संगठन खड़ा किया जा सकता है और आगामी चुनाव में भाजपा का मुकाबला भी। हरियाणा चुनाव में पराजय मिलने के बाद राहुल गांधी पर क्या प्रभाव पड़ेगा? उनकी स्वीकार्यता इंडिया गठबंधन में प्रभावित होगी या वैसी ही रहेगी? यह एक बड़ा सवाल है। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि एक चुनाव हारने से राहुल गांधी पर बहुत ज्यादा फर्क पड़ने वाला नहीं है। लेकिन हालात बता रहे हैं कि फर्क तो पड़ने वाला है। अब कांग्रेस अपने सहयोगी दलों के साथ सीटों के बंटवारे को लेकर ज्यादा दृढ़ता से अपनी बात नहीं रख पाएगी। इसका सबसे पहला उदाहरण तो उत्तर प्रदेश में ही मिल गया। उत्तर प्रदेश उपचुनाव के लिए समाजवादी पार्टी ने अपने छह उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है। इनमें से दो सीटें मझवां और फूलपुर ऐसी हैं जिस पर कांग्रेस ने दावेदारी जताई थी। सपा ने कांग्रेस की इन दोनों सीटों पर दावेदारी नकार दी है। यदि कांग्रेस हरियाणा में जीत गई होती तो शायद ऐसा नहीं होता। ठीक ऐसी ही हालत महाराष्ट्र और झारखंड में होने वाली है। कांग्रेस अब अपनी मर्जी से और अपने पक्ष में सीटों का बंटवारा कर पाने की स्थिति में शायद नहीं होगी। यदि महाराष्ट्र और झारखंड में कांग्रेस गठबंधन जीत जाता है और कांग्रेस अपने ज्यादातर उम्मीदवारों को जिताने में कामयाब हो जाती है, तो एक बार फिर वह पुरानी हैसियत में आ सकती है। हालांकि स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के कथन को याद करें, तो एक चुनाव हारने से सब कुछ खत्म नहीं हो जाता है, लेकिन चुनौतियां जरूर बढ़ जाती हैं। चुनौतियां कांग्रेस और राहुल गांधी दोनों के सामने बढ़ गई हैं। अब देखना यह है कि इन स्थितियों से दोनों कैसे निपटते हैं। वैसे यह भी सही है कि राहुल गांधी का लहजा और तेवर बदलने वाले नहीं हैं। वह अगर अपने इस तेवर को बरकरार रखकर पार्टी संगठन में व्याप्त गुटबाजी को खत्म कर पाते हैं, तो अभी बहुत ज्यादा कुछ बिगड़ा नहीं है।

संजय मग्गू

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