वेदों का ज्ञान संपूर्ण मानव जाति के लिए पथ प्रदर्शक है। अथर्ववेद एवं यजुर्वेद के एक मंत्र में इस संसार को तीव्र वेग वाली पथरीली नदी के समान कहा गया है। जिस प्रकार पानी के तीव्र प्रवाह वाली तथा जिसमें बड़े बड़े चिकने, फिसलने वाले पत्थर हों उस नदी को पार करना बड़ा कठिन होता है। उसी प्रकार वेद ने भी इस संसार को पथरीली एवं तीव्र प्रवाह वाली नदी के समान कहा है। यह संसार रूपी पथरीली नदी अपने तीव्र प्रवाह से बह रही है।
इस संसार रूपी नदी में पड़े हुए भोग्य पदार्थों के बड़े-बड़े फिसलाने वाले पत्थर ही हमारी यात्रा में सबसे बड़ी बाधा है। सांसारिकता की इस नदी का तेज वेग हमें बहाकर ले जा रहा है अर्थात जीवन तीव्र गति से व्यतीत होता चला जा रहा है। भौतिक पदार्थों की बड़ी-बड़ी शिलाओं से कदम कदम पर ठोकर लगने का भय रहता है। वेद कहता है कि इस संसार रूपी नदी को पार किए बिना मनुष्य को शाश्वत सुख-शांति की प्राप्ति नहीं हो सकती। सुख, समृद्धि एवं आत्मिक आनंद की प्राप्ति हेतु इस नदी को पार करना भी अनिवार्य है। इसलिए वेद मनुष्य को प्रेरित करते हुए कहता है कि पूर्ण पुरुषार्थ से एक दूसरे से मिलकर, सहारा देते हुए इस नदी को पार करो। भोगेच्छा,
कुसंस्कार, अधर्म की वासना तथा पापों के भारी बोझ से हमने अपने आप को बोझिल बना रखा है। इस नदी को पार करने में यह व्यर्थ का बोझ सबसे बड़ी रुकावट है। वेद का मंत्रा हमें सचेत करते हुए कहता है कि सर्वप्रथम कुवासनाओं ,अधर्म, पाप तथा तामसिक प्रवृत्तियों के बोझ को यहीं त्याग दो और अपने अंतकरण को हल्का करो। पवित्र एवं विषय वासनाओं से निवृत अंतःकरण ही हमें इस नदी को पार करने हेतु पूरी शक्ति प्रदान करता है। अधर्म, पाप तथा तामसिक प्रवृत्तियों का बोझ हमारी शक्ति ,ज्ञान तथा बल को क्षीण कर देता है।
मनुष्य जीवन की आध्यात्मिक यात्रा में यह विषय वासनाओं का व्यर्थ बोझ अधोगति की ओर ले जाने वाला है। वेद मनुष्य को सचेत करते हुए कहता है कि एक दूसरे को सहारा देते हुए ,पूर्ण पुरुषार्थ से इस पथरीली, वेगवती संसार रूपी नदी को पार करो। अपना कल्याण चाहने वाले प्रत्येक मनुष्य को इस संसार रूपी नदी को कुशलतापूर्वक तैरकर पार करने का सामर्थ्य अर्जित करना चाहिए। आध्यात्मिक ग्रंथ वेद की ऋचाओं का उपदेश मनुष्य को इस संसार रूपी नदी को पार करने का स्वर्णिम सूत्र बताता है। वेद की ऋचाओं के इस शाश्वत संदेश का अनुगमन करके प्रत्येक मनुष्य इस संसार रूपी नदी को निपुणता पूर्वक पार करने में समर्थ बन सकता है। हमारे धार्मिक ग्रंथों में इस संसार को भवसागर भी कहा गया है। श्रेष्ठ सात्विक आध्यात्मिक प्रवृत्तियों, पुण्य कर्मों की संपत्ति तथा पवित्र अंतः करण के माध्यम से इस भवसागर तथा संसार रूपी नदी को सरलता से पार किया जा सकता है और यही मनुष्य जीवन का सर्वोपरि लक्ष्य माना गया है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
-दीप चन्द भारद्वाज”