कहते हैं कि सेहत हजार नेमत के बराबर है। लेकिन इसमें सबसे अधिक लापरवाही ग्रामीण महिलाएं बरतती हैं जो घर-परिवार का ख्याल रखने के चक्कर में अपनी सेहत का जरा भी ध्यान नहीं रखती हैं। गांव की अधिकांश महिलाएं अपनी सेहत की देखभाल से ज्यादा बच्चों व बड़ों की सेवा में समय व्यतीत करती हैं। उनकी दिनचर्या ऐसी हो जाती है कि वह अपने लिए भोजन-पानी का वक्त भी नहीं निकाल पाती हैं। यहां तक कि बीमार भी पड़ जाएं तो काम करती रहती हैं। शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के प्रति उदासीनता कभी-कभार उन्हें गंभीर बीमारियों से ग्रसित कर देती है। संस्कृति और मान्यता का पालन करते हुए वह घर के सभी सदस्यों को भोजन परोसने के बाद बचे-खुचे एवं बासी भोजन करके खुद को संतुष्ट कर लेती हैं। जो अक्सर उनमें न केवल कुपोषण को जन्म देता है बल्कि धीरे धीरे उन्हें गंभीर बीमारियों की ओर धकेलता रहता है। इस बीच अगर वह बीमार हो जाएं तो वह उसे तब तक छुपाती हैं जब तक कि वह असहनीय न हो जाए।
यही वजह है कि ग्रामीण क्षेत्रों की अधिकांश महिलाएं असमय चेहरे पर झुर्रियां, कालापन, उदासीपन और चिड़चिड़ापन जैसी मानसिक रोग का शिकार हो जाती हैं। अफसोस की बात यह है कि गांव का पितृसत्तात्मक समाज न केवल महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित रखता है बल्कि उनकी सेहत को भी नजरंदाज करता है। यही कारण है कि ज्यादातर ग्रामीण घरों के पुरुष सदस्यों को महिलाओं की सेहत के प्रति जरा भी चिंता नहीं रहती है। वह उनकी बीमारी को गंभीरता से नहीं लेते हैं। कभी अच्छे डॉक्टर से इलाज कराने को प्राथमिकता नहीं देते हैं यानि जो सबका ख्याल रखती है उसका ख्याल रखने वाला कोई नहीं होता है। इतना ही नहीं, बीमारी के बावजूद उसे न केवल परिवार के सदस्यों का ख्याल रखना पड़ता है बल्कि खेतीबाड़ी व पालतू पशुओं को दाना-पानी देकर ही वह अपने बारे में सोचती हैं। कम उम्र में शादी और फिर एक के बाद एक बच्चों का जन्म जहां उसे कुपोषित बना देता है वहीं उसे मानसिक रूप से भी बीमार कर देता है।
देश के अन्य राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों की तरह बिहार के मुजफ्फरपुर जिला से करीब 65 किमी दूर दियारा क्षेत्र स्थित साहेबगंज प्रखंड के हुस्सेपुर जोड़ाकन्ही गांव की 35 वर्षीय अंजू देवी बताती हैं कि उनकी शादी बहुत कम उम्र में हो गई थी। कम उम्र में ही वह तीन बच्चों की मां बन गईं। जिससे उनके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ा। कम उम्र में ही तीन ऑपरेशन हो जाने के कारण उन्हें माहवारी के समय बहुत परेशानी होती है। अक्सर उन्हें 20 से 25 दिनों तक माहवारी आती रहती है। इस बारे में उन्होंने अपने पति को भी बताया लेकिन उन्होंने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया है।
भारत में महिलाओं एवं बच्चों की सेहत चिंता का विषय है। ज्यादतर एनीमिक या रक्त की कमी के शिकार है, तो वहीं कुपोषण एक बड़ी समस्या है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के अनुसार एनीमिया पीड़ितों की स्थिति 2015-2016 में 54 प्रतिशत से बढ़कर 2019-2021 में 59 प्रतिशत हो गई है। यह समस्या कम आयु में विवाह, किशोर गर्भावस्था और असुरक्षित गर्भपात के कारण होती है।
भारत में लगभग 50 मिलियन महिलाएं प्रजनन और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से पीड़ित हैं। कुल मिलाकर प्रजनन, स्वास्थ्य, गर्भधारण, असुरक्षित गर्भपात और पारिवारिक व सामाजिक वातावरण महिलाओं के स्वास्थ्य पर बहुत बुरा प्रभाव डाल रहे हैं। बहरहाल, स्वास्थ्य केंद्र, सरकारी, गैर-सरकारी सामाजिक संस्थाओं एवं आंगनबाड़ी केंद्रों की महत्ती भूमिका है कि ऐसे उपेक्षित गांवों की अशिक्षित और गरीब परिवार की महिलाओं को प्रजनन, स्वास्थ्य, प्रसव पूर्व एवं बाद में पोषण, बच्चों की देखभाल, परिवार नियोजन, गर्भधारण, गर्भपात, शादी की सही आयु आदि के लाभों से अवगत कराये तो निश्चित रूप से ऐसे गांवों की सेहत सुधारी जा सकती है। दरअसल जागरूकता का अभाव और सामाजिक परिवेश ही महिलाओं को अपनी सेहत के प्रति लापरवाह बना देता है। (चरखा)
(यह लेखिका के निजी विचार हैं।)
-सिमरन सहनी