स्वामी सहजानंद सरस्वती सिर्फ संन्यासी ही नहीं थे, बल्कि क्रांतिकारी भी थे। उन्होंने स्वाधीनता संग्राम में खुलकर भाग लिया था। जिस तरह अनुशीलन समिति के गठन के पीछे स्वामी विवेकानंद की प्रेरणा को माना जाता है, ठीक उसी तरह सन 1940 में कांग्रेस के खिलाफ आयोजित होने वाले समझौता विरोधी सम्मेलन के पीछे उनकी भी प्रेरणा थी। वह भी कांग्रेस की नीतियों को पसंद नहीं करते थे। स्वामी सहजानंद ने संन्यास लेने के बाद किसी मंदिर या मठ में बैठकर धूनी रमाने की जगह पहले देश का भ्रमण किया। देश की जनता की दशा देखी और फिर क्रांति की अलख जगाने निकल पड़े।
जब उनका कांग्रेस से मोहभंग नहीं हुआ था, तब वे नमक सत्याग्रह और खादी आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। उन्होंने किसानों की दुर्दशा देखकर उनको अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार किया। वह हमेशा अंग्रेजी हुकूमत के विरोध में ही खड़े रहे। इसका नतीजा यह हुआ कि उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। जेल में उन्होंने समय का सदुपयोग करते हुए कई पुस्तकों की रचना की जिसमें से गीता हृदय सबसे प्रसिद्ध है।
कहा जाता है कि स्वामी सहजानंद सरस्वती और पुरुषोत्तम दास टंडन में काफी घनिष्टता थी। उत्तर प्रदेश में इन दोनों ने अंग्रेजों के खिलाफ कई आंदोलन चलाए थे। देश आजाद होने के बाद भी स्वामी सहजानंद सरस्वती ने कोई सरकारी सुविधा नहीं ली। वे मानते थे कि उन्होंने अपने देश और किसानों के लिए जो कुछ भी किया, वह किसी स्वार्थ के लिए नहीं किया था। यह अपने देश और देश के किसानों के लिए उनका कर्तव्य था। स्वामी सहजानंद सरस्वती 26 जून 1950 में एकाएक बीमार पड़े और उनकी मौत हो गई।
अशोक मिश्र