संजय मग्गू
नवंबर आधा बीत रहा है। आज भी हरियाणा में रातों का तापमान सामान्य से छह डिग्री ज्यादा है। यही हाल लगभग कमोबेश पूरे उत्तर भारत का है। दो दशक पहले इन दिनों रात में हल्की मोटी चादर ओढ़ने और शाम को हलका स्वेटर पहननी पड़ती थी। यह फर्क अगर है तो जाहिर सी बात है कि इसका कारण जलवायु परिवर्तन हैं। इस जलवायु परिवर्तन का ही नतीजा है कि कृषि वैज्ञानिक अब कहने लगे हैं कि यदि तापमान जल्दी नहीं गिरा तो गेहूं उत्पादन इस साल 15 प्रतिशत तक घट सकता है। भारत की बात छोड़िए, अभी पंद्रह सोलह दिन पहले 29 अक्टूबर को यूरोप के वेलेंसिया शहर में तीन घंटे के अंदर पूरे साल भर के बराबर बारिश हुई। पूरा शहर तबाह हो गया। यह भी जलवायु परिवर्तन का ही नतीजा था। ऐसे संकट के दौर में अजरबैजान के बाकू शहर में अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन कॉप-29 चल रहा है। इससे पूरी दुनिया को बहुत ज्यादा उम्मीद भी नहीं है। हर बार की तरह दो सौ से अधिक देशों के राष्ट्राध्यक्ष, प्रतिनिधि और वैज्ञानिक जमा हुए हैं। सम्मेलन में आम तौर पर अब तक यही होता आया है कि विकसित देश अपनी-अपनी सुनाते हैं और विकासशील या अविकसित देशों पर कार्बन उत्सर्जन की धौंस जमाते हैं और चले जाते हैं। कोई भी कार्बन उत्सर्जन रोकने के लिए लगने वाला खर्च करना नहीं चाहता है। अमेरिका के दोबारा चुने गए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को तो वैसे भी जलवायु परिवर्तन को लेकर कोई चिंता नहीं है। वह तो अपने चुनाव के दौरान ही ‘ड्रिलिंग…ड्रिलिंग… ड्रिलिंग’ कहकर यह जाहिर कर चुक हैं कि वह जीवाश्म ईंधन को कम करने की नीति अपनाने वाले नहीं हैं। आर्कटिक क्षेत्र में वह प्राकृतिक गैस के लिए खुदाई करने को तैयार हैं। वह तेल को तरल सोना कहते हैं। सन 2016 में पेरिस में आयोजित किए गए कॉप सम्मेलन में होने वाले समझौते को ट्रंप ने मानने से इनकार कर दिया था और अमेरिका को अलग कर दिया था। ऐसी परिस्थितियों में अजरबैजान में चल रहे कॉप-29 का उतना महत्व रह नहीं जाता है। निकट भविष्य में जब ट्रंप अपनी ड्रिल नीतियों को लागू करेंगे, तो स्वाभाविक है कि अमेरिका सहित कई देशों में कार्बन उत्सर्जन बढ़ेगा। सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार भी अमेरिका, चीन जैसे देश हैं। प्रकृति पिछले कई सालों से संकेत दे रही है। पिछले दिनो ईराक में आई बाढ़ हो या सऊदी अरब में हुई बर्फबारी, इनके माध्यम से प्रकृति अपना संदेश लोगों तक पहुंचा रही है। इस साल गर्मी भी रिकार्डतोड़ पड़ी और उसके दिन भी बढ़ गए हैं। हीट वेव की अवधि में भी काफी इजाफा हुआ है। निकट भविष्य में खतरा और भी बढ़ेगा। इसके लिए किसी एक देश को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। इसके लिए सभी देश और उनकी नीतियां जिम्मेदार हैं। जब इस संकट के लिए सभी जिम्मेदार हैं, तो इससे बचने के लिए सबको भरसक प्रयास करने होंगे। ऐसा भी नहीं होगा कि जलवायु परिवर्तन का असर किसी एक क्षेत्र में हो और दूसरे क्षेत्र में न हो। इसके परिणाम तो सबको भुगतने ही पड़ेंगे। इससे कोई बच नहीं सकता है।