संजय मग्गू
संघ प्रमुख मोहन भागवत ने तीन बच्चे पैदा करने की जो बात कही है, वह कोई नई नहीं है। चीन के शी जिनपिंग, रूस के पुतिन जैसे दुनिया के कई देशों के राष्ट्राध्यक्ष यही अपील कर चुके हैं। तीन या अधिक बच्चे पैदा करने की अपील के पीछे इनके अपने-अपने निहितार्थ हैं, राजनीतिक समीकरण हैं। भागवत की अपील के पीछे भी एक उद्देश्य छिपा हुआ है। लेकिन जिसको यह लक्ष्य हासिल करना है, वह मौन है। उसकी कोई भी प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है। हां, कुछ महिला सांसदों ने इस पर अपनी तीखी प्रतिक्रिया जरूर दी है। बच्चे पैदा करने का काम प्रकृति ने मादा को दे रखा है। नर सिर्फ गर्भाधान कर सकता है, लेकिन इससे आगे की सारी क्रिया-प्रक्रिया मादा यानी (अगर मनुष्य के संदर्भ में कहें तो) औरतों के जिम्मे है। किसी महिला द्वारा बच्चे को जन्म देने की प्रक्रिया नौ महीने जैसा एक लंबा समय लेती है। अब कोई महिला किसी राष्ट्राध्यक्ष, संत या रसूखदार व्यक्ति के कहने पर अपनी मर्जी के खिलाफ ऐसा जोखिम क्यों उठाएगी? और फिर, चलिए थोड़ी देर के लिए यह मान लिया जाए कि कोई महिला संघ प्रमुख भागवत की बात से प्रभावित होकर अगले बच्चे की प्लानिंग कर भी ले, तो उस बच्चे के पालन-पोषण, पढ़ाई लिखाई पर होने वाले खर्च की व्यवस्था कहां से होगी? कौन उठाएगा यह खर्च? स्वाभाविक है कि संघ प्रमुख इस मामले में कोई मदद करने आएंगे नहीं। हमारे समाज में बच्चे के पैदा होने के बाद उनके पालन-पोषण से लेकर उनके बालिग होने तक की जिम्मेदारी महिलाओं के कंधे पर ही आती है। पुरुष तो बस पालन-पोषण पर लगने वाला खर्च देकर अपने दायित्व से बरी हो जाता है। विभिन्न देशों के राष्ट्राध्यक्षों की अपीलों का अब तक कोई प्रभाव उनके देश की महिलाओं पर पड़ा हो, इसकी जानकारी अभी तक सामने नहीं आई है। कुछ देशों ने सुविधाएं और पैकेज देने की घोषणा की है, ऐसी स्थिति में कुछ हद तक भले ही बच्चों के जन्मदर में मामूली सी बढ़ोतरी हुई हो। असल में, जब से लड़कियों ने पढ़ना-लिखना और आत्मनिर्भर होना सीख लिया है, तब से वह कई तरह की गुलामी और दबाव से मुक्त हो गई हैं। अब वे इस बात का फैसला करने के लिए स्वतंत्र हैं कि उन्हें बच्चा पैदा करना है या अकेले ही रहना है। करियर पहले है या बच्चा? यह अच्छी बात है कि महिलाएं अब अपने पास उपलब्ध संसाधनों, आर्थिक दशा और भावी जिंदगी का आकलन करके कोई फैसला ले रही हैं। कोई एक ही बच्चा पालने में सक्षम है, तो वह दूसरा बच्चा पैदा करके क्यों एक मुसीबत मोल लेना चाहेगा। यह सोच समाज और राष्ट्र के साथ दुनिया भर के लिए बेहतर है। हमारे पास जितने संसाधन हैं, उनको ध्यान में रखते हुए यदि कोई फैसला लेते हैं, तो इससे बेहतर और क्या हो सकता है। उनकी इसी सोच से जाहिर होता है कि दुनिया में आबादी घटने या बढ़ने से किसी जाति, धर्म, भाषा, संप्रदाय की कोई भूमिका नहीं है। ऐसी स्थिति में धर्म, जाति, राष्ट्र और समाज के नाम पर कोई भावनात्मक अपील करता है, तो महिलाओं की बला से।
और बच्चे पैदा कर भी लें, तो उसे खिलाए-पिलाएगा कौन?
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