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संसद के कलुषित परिवेश का जिम्मेदार कौन?

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प्रियंका सौरभ
पिछले कुछ दिनों से संसद में जो कुछ हो रहा है, उससे देश निराश है। संसद चलाकर सरकार विपक्ष के सवालों के जवाब सही ढंग से दे सकती है। हंगामे के माहौल में सांसदों को अपनी बात रखने का मौका ही नहीं मिलता। कोई बच्चा भी समझ सकता है वेल में जाकर नारेबाजी और हंगामा कर सदन की कार्यवाही रोकने से कैसे विरोध जताया जा सकता है। अच्छी बात तो तब कही जाएगी, जब आप अपने सवाल साफ-साफ रखें और सरकार साफ-साफ जवाब दे पाए। लेकिन इससे भी अधिक चिंता का विषय यह है कि संसद की कार्रवाई में बाधा अपवाद की बजाय नियम बन गया है और हमारे नेताओं को इस पर कोई पछतावा नहीं होता है। पिछले वर्षों में यह गिरावट बड़ी तेजी से आई है। सांसद एक-दूसरे पर चिल्लाते हैं, विधायी कागजों को छीनकर फाड़ देते हैं, छोटे से मुद्दे पर सदन के बीचो-बीच आ जाते हैं। पिछले वर्षों में ज्यादातर विधेयकों को बिना चर्चा के ही पारित किया गया है। यह संसदीय प्रणाली का दुरुपयोग है।
अब विपक्षी पार्टियों और कुछ सांसदों ने संसद की दुर्गति कर रखी है। दोनों सदनों में निजी एजेंडों को लेकर अनुत्पादक हंगामा कर कार्यवाही ठप करा देना आम बात है। संसद में शोर-शराबा, वेल में जाकर नारेबाजी करना, एक-दूसरे पर निजी कटाक्ष करना यहां तक कि कई बार हाथापाई पर उतारू हो जाना आज संसद की आम तस्वीर है। आखिर सियासी पार्टियों और सांसदों का बर्ताव इतना अराजक क्यों हो गया है? क्या आज पार्टियों के निहित स्वार्थों ने संसद को मजाक बनाकर रख दिया है। सांसदों के रवैये को देखते हुए लगता नहीं है कि उसकी मंशा देश के विकास की योजनाएं बनने देने की है। ऐसा लग रहा है कि सांसदों ने पूरे संसदीय लोकतंत्र को बंधक बना लिया है। लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही आजकल टीवी पर लाइव दिखाई जाती है, लिहाजा देश का आम आदमी भी वह सब कुछ देखता है, जो संसद में रोज हो रहा है। आखिर सांसद लोगों के सामने अपनी क्या छवि पेश कर रहे हैं? जरा सोचिए कि देश के लोगों के मन में आपकी क्या छवि बनती जा रही है?
राजनीति आज संख्या का खेल बन गई है जिसके चलते क्षेत्रीय क्षत्रप अपनी मनमर्जी कराने के लिए दबाव डालते हैं। वे न केवल दादागिरी की राजनीति में विश्वास करते हैं अपितु सफल संसद सत्र के पैमाने को ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ भी बनाते हैं। आज विषय-वस्तु की बजाय आकार महत्वपूर्ण बन गया है जिसके चलते संसद में गली-मोहल्लों के झगड़ों जैसे दृश्य देखने को मिलते हैं। इस गिरती राजनीतिक संस्कृति और नैतिक मूल्यों में संसदीय कार्रवाई में राजनीति को प्रभावित करने वाली विषय सामग्री नहीं मिलती है। कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि संसद अब महज एक स्कोरिंग क्लब बन कर रह गई है। बहुतों को पता होगा कि संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर ढाई लाख रुपये खर्च हो जाते हैं। एक दिन की सामान्य कार्यवाही पर औसतन छह करोड़ रुपये का खर्च आता है। जिस दिन कार्यवाही लंबी चलती है, उस दिन खर्च और बढ़ जाता है। जरा सोचिए कि यह पैसा आता कहां से है। जाहिर है कि देश के आम लोगों की जेब से ही आता है। लोकतंत्र में इससे बड़ा और क्या मजाक होगा कि संसद की कार्यवाही लगातार ठप रहे या फिर दिन भर रह-रह कर हंगामा होता रहे, फिर भी एक दिन में छह करोड़ रुपये खर्च हो जाएं। जरा सोचिए कि छह करोड़ रुपये से क्या-क्या हो सकता है? हजारों गांवों की किस्मत संसद की एक दिन की कार्यवाही पर होने वाले खर्च से बदल सकती है। लाखों गरीब लड़कियों की शादी हो सकती है। लघु और कुटीर उद्योगों से हजारों नौजवानों की किस्मत संवर सकती है। लेकिन सांसद यह सब नहीं सोचते। विकास की योजनाएं भले न बनें, व्यक्तिगत हित जरूर सुधरने चाहिए। क्या सांसद देश से ऊपर हो गए हैं?
(यह लेखिका के निजी विचार हैं।)

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