जिस प्रकार हम आसमान की ऊंचाइयों को नाप नहीं सकते, जिस प्रकार हम समुद्र की गहराइयों की थाह नहीं ले सकते। उसी प्रकार हम श्रीराम की मर्यादा की गहराइयों और ऊंचाइयों को क्या किसी भी तरह से माप सकते हैं? क्योंकि वे अनंत हैं, अथाह हैं और सच तो यह है कि यह कार्य भारतीय सोच से उनकी तुलना किसी से बिलकुल नहीं की जा सकती। मर्यादा पुरुषोत्तम सबसे अलग हैं। इक्ष्वाकु वंश के मर्यादा पुरुषोत्तम राम अयोध्या के महाराज दशरथ के चार पुत्रों में सबसे बड़े थे। उनकी मर्यादाओं पर अब तक सैकड़ों ग्रंथ लिखे जा चुके हैं, लेकिन जब भी अपने निराशा के क्षण में आप उन्हें जानना और पढ़ना चाहेंगे, उनकी कीर्ति अद्भुत होती जाएगी और उस मर्यादा पुरुषोत्तम राम के विचारों से मन आलोकित होने लगेगा। भगवान वाल्मीकि और महाकवि तुलसीदास ने जो लिखा है, यदि उन ग्रंथों को किसी ने पढ़ा है, तो फिर उनके लिए एक सामान्य बुद्धि वाले द्वारा कुछ लिखना बेमानी ही होगी।
आज यह विषय बहुत ही विचारणीय हो गया है कि ऐसे श्रीराम को व्यक्तिगत रूप से कोई कैसे अपनी संपत्ति बना सकता है। आज देश ही नहीं, पूरे विश्व में भारत के लिए यही चर्चा का मुद्दा बना हुआ है कि क्या श्रीराम किसी खास धर्म—समुदाय, पार्टी विशेष, संस्था या संगठन की संपत्ति है? ऐसा इसलिए, क्योंकि 22 जनवरी, 2024 को उनकी मूर्ति का उनके निज स्थान अयोध्या में स्थापित करके उन्हें जीवंत करने यानी उनको पुनर्स्थापित किया जाएगा, इसलिए प्राण—प्रतिष्ठा का कार्यक्रम आयोजित किया गया है।
इस वजह से देश दो धड़ों में बट गया है, एक तो वह, जो इसे नए सिरे से स्थापित करके उनकी प्राण—प्रतिष्ठा करने जा रहे हैं अर्थात सत्तारूढ़ दल और दूसरा विपक्ष। अब यह भी समझने की कोशिश करते हैं कि ये दोनों आखिर हैं कौन। इन दोनों में पहले तो एक वह हैं, जो मूर्ति को स्थापित करने और उनमें प्राण—प्रतिष्ठा करने वाले हैं। वे हैं मूलत: भाजपा तथा दूसरे वह हैं, जो अभी सत्ता में नहीं हैं और सत्तारूढ़ दल के विरोध में कार्य करते हैं अर्थात विपक्षी दल। विरोध करना लोकतांत्रिक प्रक्रिया है, क्योंकि हमारा संविधान हमें इसकी अनुमति देता है। अब प्रश्न या है कि इसका समाधान कैसे हो? चूंकि मंदिर में रामलला की प्राण—प्रतिष्ठा की तिथि घोषित कर दी गई है और निमंत्रण भी बांटे जा चुके हैं।
क्या सत्तारूढ़ भाजपा इस बात को स्वीकार करेगी कि जिस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री शामिल होकर उद्घाटन करने वाले हों, उसे फिलहाल टाला जा सकता है? यह किसी तरह से संभव नहीं है, क्योंकि यह बात सत्तारूढ़ दल के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। इसलिए निमंत्रण के साथ यह भी प्रचारित किया जा रहा है कि अभी यह हिंदू राष्ट्र बनाने के मार्ग का एक कदम है, जिसके विस्तार में वाराणसी और मथुरा अगला कदम होगा। इसलिए देश के हिंदू, जो हिंदुराष्ट्र की कल्पना में डूबे हैं, अपनी खुशी का इजहार करते जगह—जगह घूम रहे हैं। उद्घाटन समारोह को टालने की बात विशेषकर शंकराचार्यों द्वारा की जा रही है। ऐसा इसलिए कि आदि शंकराचार्य ने चार मुख्य मठ स्थापित किए थे, जिसका उद्देश्य धर्म रक्षार्थ, सनातन रक्षार्थ था।
जिन शंकराचार्यों ने राम मंदिर प्राण—प्रतिष्ठा कार्यक्रम में शामिल होने से मना कर दिया है, वे हैं स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती, स्वामी श्रीभारती कृष्ण, स्वामी श्री अभिमुक्तेश्वरानंद, स्वामी श्रीसदानंद महाराज। सनातन धर्म के रक्षार्थ उनका उद्देश्य था यदि कोई आक्रांता हमारे सनातन धर्म पर हमला करे, तो ये मठाधीश शंकराचार्य उनसे शास्त्रार्थ करें और अपने सनातन की रक्षा करें। चूंकि अब देश का राजनीतिक भाव सनातन धर्म के रक्षार्थ नहीं, बल्कि राजनीतिक ताकत का परिचायक हो गया है, इसलिए ऐसा कहा जा रहा है कि देश के इन चार मठों के शंकराचार्यों ने राम मंदिर के उद्घाटन और प्राण—प्रतिष्ठा को धर्म के अनुकूल नहीं माना है। लेकिन, अब उनकी सुनता कौन है?
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
-निशिकांत ठाकुर