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स्मार्टफोन बना रहा हमारे बच्चों को आक्रामक

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देश रोज़ाना: सूचना क्रांति के इस दौर में पूरी दुनिया ग्लोबल विलेज बन गई है। आज तमाम अद्यतन जानकारी, सूचना, तकनीकी अनुसंधान, पठन-पाठन आदि मानव जीवन के लिए आसान और सर्वसुलभ हो गया है। सबसे ज्यादा शिक्षा में क्रांतिकारी बदलाव आया है। अब घर बैठे स्मार्टफोन, टैबलेट, लैपटॉप, कंप्यूटर आदि को इंटरनेट के जरिए कंनेक्ट करके बहुत तीव्रता और शुद्धता के साथ नवीनतम और अद्यतन ज्ञान को प्राप्त करना सुलभ हो गया है। ऐसे में इंटरनेट की सुविधा के सदुपयोग करने वाले विद्यार्थी स्कूली परीक्षा, प्रतियोगी परीक्षाओं से लेकर अनुसंधानात्मक तथा तथ्यात्मक प्रक्रिया को अपनाकर नित्य नए प्रतिमान गढ़ रहे हैं। कोरोना काल में इंटरनेट के जरिए आॅनलाइन शिक्षा की बदौलत ही प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक अलख जगाना सर्वसुलभ व संभव हो सका था। कई बड़ी एजुकेशनल कंपनियां अस्तित्व में आई और आज पूरे देश-विदेश में डिप्लोमा, डिग्री, मास्टर तक की आॅनलाइन संभव हो सकी है। सामान्य शिक्षा के अलावा तकनीकी शिक्षा को भी इंटरनेट के माध्यम से वैश्विक स्तर पर स्थापित करना बेहद फायदेमंद रहा है।

प्राइवेट स्कूल की तरह सरकारी स्कूल में भी इ-लर्निंग एवं डिजिटल सामग्रियों की व्यवस्था हो रही है। ब्लैकबोर्ड की जगह डिजिटल बोर्ड लग रही है। स्मार्ट क्लास में दृश्य-श्रव्य सामग्रियों से पाठ्यक्रम को आसान बनाया जा रहा है। गुरुजी, यूट्यूब व लर्निंग एप्प से पढ़ाकर स्मार्ट गुरु बन गए हैं। बच्चों के हाथ में स्मार्टफोन और टैब होना आम बात हो गई है। कोरोना काल में इन विषय से संबंधित जानकारियों को प्राप्त करना तो सिखाया ही है, साथ ही उन्हें बेवक्त सोशल मीडिया पर घंटों रहने की आदत भी डाल दी है, जो आज बच्चों के लिए मानसिक रोग का कारण बनता जा रहा है। कोरोना के बाद अधिकांश बच्चों की आंखों पर चश्मे लग गए हैं। ऐसे में माता-पिता बच्चों में मोबाइल की लत को लेकर परेशान और चिंतित हैं।

स्कूल में अभिभाावक शिक्षक मीटिंग के दौरान अधिकांश अभिभावकों की शिकायत रहती है कि मेरा बच्चा पढ़ाई के बहाने सोशल मीडिया पर अधिक वक्त गुजारता है। जिसकी वजह से उसमें चिड़चिड़ापन, अनिद्रा और आंखों की समस्या उत्पन्न हो रही है। इस संबंध में डॉ परमेश्वर प्रसाद कहते हैं कि छोटी उम्र के बच्चों में स्मार्टफोन के अधिक इस्तेमाल से मानसिक रोग तथा ट्यूमर का खतरा अधिक रहता है। आंखों में जलन होना, सूखापन, थकान, अनिद्रा, चेहरे का शुष्क होना आदि आम बात है। स्मार्टफोन चलाते वक्त पलकें कम झपकाने से विजन सिंड्रोम जैसी समस्या पैदा होती है। स्मार्टफोन का दुष्परिणाम है कि बच्चे सामाजिक तौर पर विकसित नहीं हो पा रहे हैं। अन्य बच्चों के साथ सामूहिक गतिविधियां नहीं होने की वजह से उनके व्यक्तित्व का विकास अवरुद्ध हो रहा है। मनोचिकित्सकों का मानना है कि ऐसे बच्चे कार्टून या गेम्स के कैरेक्टर को देखकर हूबहू घर में हरकतें करने लगते हैं। फलस्वरूप उनका बौद्धिक विकास प्रभावित होता है। फोन के चक्कर में खाना-पीना भूलकर घंटों उनका समय गेम्स और वीडियो में लगा रहता है। जिसकी वजह से बच्चों में आक्रामक शैली का विकास अधिक हो रहा है।

स्मार्टफोन की लत केवल बच्चों में ही नहीं बल्कि बड़ों में भी लग गई है। एक ही कमरे में रहने वाले पति-पत्नी में बातचीत कम और स्मार्टफोन के स्क्रीन पर उंगलियां अधिक चलती हैं। स्मार्टफोन के जितने फायदे हैं, उतनी ही घर-परिवार के लोगों के प्रति संवेदनहीनता भी बढ़ रही है। पड़ोस में कोई घटना हो जाए तो लोगों को व्यक्तिगत जानकारी नहीं दी जाती बल्कि फेसबुक, इंस्टाग्राम के जरिए पता चलता है कि अमुक व्यक्ति की तबीयत खराब है या जन्मदिन मनाया जा रहा है।(चरखा) (यह लेखिका के निजी विचार हैं।)

– वंदना कुमारी

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