प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आर्थिक सलाहकार परिषद (ईएएसी-पीएम) के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय ने 15 अगस्त को आर्थिक समाचार पत्र मिंट में एक लेख लिखकर भारतीय राजनीति में एक बम फोड़ दिया है। उनका लेख प्रकाशित होने के बाद से ही राजनीतिक हलकों में एक भूचाल सा मचा हुआ है। राजनीतिक दलों ने आरोप-प्र्रत्यारोप शुरू कर दिया है। मामला बढ़ने पर हालांकि आर्थिक सलाहकार परिषद ने सफाई भी दी है कि बिबेक देबरॉय ने अपने लेख में जो कुछ कहा है, वह उनका निजी विचार है। उसके इस विचार का संस्था से कोई लेना देना नहीं है। गुरुवार को ईएएसी-पीएम ने सोशल मीडिया पर स्पष्टीकरण देते हुए लिखा कि डॉ बिबेक देबरॉय का हालिया लेख उनकी व्यक्तिगत राय थी, वो किसी भी तरह से ईएएसी-पीएम या भारत सरकार के विचारों को नहीं दर्शाता है।
ईएएसी-पीएम भारत सरकार, खासकर प्रधानमंत्री को आर्थिक मुद्दों पर सलाह देने के लिए गठित की गई बॉडी है।15 अगस्त को लिखे लेख में बिबेक देबराय ने एक नए संविधान की वकालत की है। उनका मानना है कि अब हमारे पास वह संविधान नहीं है जो हमें 1950 में विरासत में मिला था। इसमें संशोधन किए जाते हैं और हर बार वो बेहतरी के लिए नहीं होते, हालांकि 1973 से हमें बताया गया है कि इसकी ‘बुनियादी संरचना’ को बदला नहीं जा सकता है। भले ही संसद के माध्यम से लोकतंत्र कुछ भी चाहता हो। जहाँ तक मैं इसे समझता हूं, 1973 का निर्णय मौजूदा संविधान में संशोधन पर लागू होता है, अगर नया संविधान होगा तो ये नियम उस पर लागू नहीं होगा।
देबरॉय ने एक स्टडी के हवाले से बताया कि लिखित संविधान का जीवनकाल महज 17 साल होता है। भारत के वर्तमान संविधान को उन्होंने औपनिवेशिक विरासत बताया है। लेख में उन्होंने कहा है कि हम जो भी बहस करते हैं, वो ज्यादातर संविधान से शुरू और खत्म होती है। महज कुछ संशोधनों से काम नहीं चलेगा। हमें ड्राइंग बोर्ड पर वापस जाना चाहिए और शुरू से शुरुआत करना चाहिए। ये पूछना चाहिए कि संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोक तांत्रिक, न्याय, स्वतंत्रता और समानता जैसे शब्दों का अब क्या मतलब है। हमें खुद को एक नया संविधान देना होगा।
बिबेक देबराय के विचार आजादी के बाद और संविधान लागू होने से पूर्व पूरे देश की मानसिकता थी, उससे मेल नहीं खाते हैं। यदि समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, न्याय, स्वतंत्रता और समानता जैसे शब्दों का महत्व नहीं होता तो हमारा देश भी हिंदू राष्ट्र हो गया होता। जैसे कि पाकिस्तान मुस्लिम राष्ट्र होकर अधोगति को प्राप्त हो गया है। जब कोई भी देश अपना संविधान स्वीकार करता है, तो उस देश की बहुसंख्यक आबादी की सोच और विचारधारा के अनुरूप ही करता है। अब जब हर जगह हिंदू राष्ट्र बनाने की बात हो रही है, तो बिबेक देबराय की नए संविधान की मांग को लेकर किसी को ताज्जुब नहीं होना चाहिए। यह कुछ लोगों की मांग हो सकती है, लेकिन पूरे देश की नहीं। पूरा देश आज भी स्वतंत्र, लोकतांत्रिक और समाजवादी रहना चाहता है।
संजय मग्गू