संजय मग्गू
राजनीतिक पार्टियों के आलाकमान, जो कभी-कभी ऐसे प्रतीत होते हैं मानो वे किसी राजघराने के महाराज हों। उनकी एक झलक पाने के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं की भीड़ उमड़ पड़ती है। वे ऐसा जाहिर करते हैं मानो वे कोई देव हों। आलाकमान का आदेश इस तरह शिरोधार्य कर लेते हैं मानो आलाकमान का आदेश पत्थर की लकीर हो। उनकी हर बात पर, हर निर्णय पर कार्यकर्ता ऐसे झूम उठते हैं जैसे कि उन्होंने कोई दिव्य ज्ञान प्राप्त कर लिया हो। वे उनकी बात सुनकर धन्य हो गए हों। आलाकमान का एक आदेश आता है और सारा पार्टी तंत्र हिलने लगता है। मानो भूकंप आ गया हो, मानो किसी पुराने जमाने के बादशाह ने अपनी प्रजा को कोई हुक्म दिया हो। दरबारी खुशामद करते हुए उनके हुक्म की तामील में जुट जाते हैं। आलाकमान का एक फोन कॉल और मुख्यमंत्री की कुर्सी हिलने लगती है, सांसद-विधायक अपना स्थान सुनिश्चित करने के लिए व्यस्त हो जाते हैं। आलाकमान के चरणों में बैठने के लिए नेताओं की कतार लग जाती है। लोग नब्बे डिग्री में झुककर सजदा करने लगते हैं।
यह फैसलों का सिलसिला चलता रहता है, कभी खत्म नहीं होता है। आलाकमान को कभी-कभी लगता है कि वे जनता के दुख-दर्द के बारे में सबसे अधिक जानते हैं। अपने वातानुकूलित कमरों में बैठकर वे जनहित के निर्णय लेते हैं, जैसे कि किसे टिकट देना है, किसे पद से हटाना है, किस क्षेत्र में कौनसा विकास कार्य करवाना है। हाँ, विकास कार्य करवाना है या नहीं, यह एक बड़ा सवाल है। क्योंकि असल में यह इस बात पर निर्भर करता है कि उस क्षेत्र के विधायक ने आलाकमान की कितनी सेवा की है। यह सेवा भी कैसी की है। सेवा के प्रकार पर भी विकास करवाना है या नहीं, इसका फैसला होता है।
आलाकमान के फैसले कभी-कभी इतने अद्भुत होते हैं कि जनता तो क्या, पार्टी के नेता भी हैरान रह जाते हैं। एक उदाहरण के रूप में, पार्टी के वरिष्ठ नेता जो दशकों से सेवा कर रहे होते हैं, पार्टी को एक ऊंचाई तक ले जाने में उन्होंने अपना खून-पसीना एक कर दिया था। अचानक उन्हें दरकिनार कर किसी नए चेहरे को महत्वपूर्ण पद पर बैठा दिया जाता है। फिर आलाकमान का तर्क होता है कि यह युवाओं को मौका देने की नीति है। हाँ, वह युवा जो आलाकमान के रिश्तेदार या करीबी होता है।
अक्सर पार्टी के फैसले लेने में आलाकमान का ध्यान पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र की बात भी होती है। लेकिन हकीकत में यह लोकतंत्र सिर्फ कागजों तक ही सीमित होता है। असल में तो एक ही व्यक्ति या परिवार का वर्चस्व चलता है। उनके आगे सब नतमस्तक होते हैं, चाहे वह पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेता हों या फिर एक साधारण कार्यकर्ता। किसी की कोई हैसियत नहीं है कि वह आलाकमान के खिलाफ बोल सके। पार्टी के अंदरूनी फैसले भी आलाकमान की मर्जी से ही होते हैं। किसे टिकट मिलेगा, किसे मंत्री पद मिलेगा, सब कुछ पहले से ही तय होता है। यह लोकतंत्र नहीं, बल्कि राजतंत्र जैसा प्रतीत होता है। और फिर जब चुनाव नजदीक आते हैं तो आलाकमान अचानक से जनता के बीच सक्रिय हो जाता है, मानो उन्हें जनता की बहुत फिक्र हो। आलाकमान के इन फैसलों पर कार्यकर्ता और नेता दोनों ही नजर रखते हैं, क्योंकि एक गलत कदम और करियर खत्म। इस पूरे खेल में सबसे ज्यादा नुकसान किसका होता है? जनता का। क्योंकि उन्हें ऐसे नेता मिलते हैं जो आलाकमान की चापलूसी में व्यस्त रहते हैं, जनता की सेवा में नहीं। आलाकमान के फैसलों का यह खेल जारी रहता है, और जनता बस एक मूकदर्शक बनकर रह जाती है। और इस तरह, आलाकमान अपने फैसलों के साथ सत्ता की शतरंज खेलते रहते हैं, जहां जनता बस प्यादे की भूमिका निभाती है। शायद यही भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी विडंबना है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
संजय मग्गू