बोधिवृक्ष
अशोक मिश्र
यह एक अजीब संयोग है कि जिन दिनों भारत में महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी लोगों के बीच धर्म की नई व्याख्या कर रहे थे। लोगों को सहजता से धर्म और सामाजिक जीवन जीने का तरीका बता रहे थे। ठीक उन्हीं दिनों चीन में एक दार्शनिक कन्फ्यूशियस लोगों को सच बोलने, प्रेम के मार्ग पर चलने और अपने बुजुर्गों का मान-सम्मान करने की शिक्षा दे रहे थे। महान दार्शनिक कन्फ्यूशियस ने वैसे तो ईश्वर के बारे में कुछ नहीं कहा, लेकिन लोगों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने में वे सदैव आगे रहे। कन्फ्यूशियस का जन्म 550 ईसा पूर्व चीन के शानदोंग प्रदेश में हुआ था। वह अपने शिष्यों को नीति, काव्य और इतिहास की शिक्षा दिया करते थे। पूरे चीन से लोग उनसे शिक्षा लेने आते थे। कहा जाता है कि जब उनका अंतिम समय आया, तो उन्होंने अपने शिष्यों को आखिरी शिक्षा देने का मन बनाया। उन्होंने अपने एक शिष्य को बुलाकर कहा कि देखो, मेरे मुंह में जीभ है या नहीं? शिष्य ने उनके पोपले मुंह में झांककर देखा और बोला, आपके मुंह में जीभ मौजूद है। यह सुनकर वह मुस्कुराए और दूसरे शिष्य से कहा कि जरा मेरे मुंह में झांककर देखो कि दांत मौजूद हैं या नहीं। दूसरे शिष्य ने झांककर देखा और कहा कि आपके मुंह में एक भी दांत मौजूद नहीं है। सारे दांत टूट गए हैं। कन्फ्यूशियस ने फिर पूछा कि पहले जीभ का जन्म हुआ था या दांत का? सबने एक साथ कहा कि जीभ आपके जन्म के साथ जन्मी थी, लेकिन दांत बाद में आए थे। कन्फ्यूशियस फिर मुस्कुराए और बोले, दांत इसलिए टूट गए क्योंकि वह क्रूर और कठोर थे। लेकिन जीभ इसलिए मौजूद है क्योंकि वह सरल और लचीली थी। क्रूर बहुत दिन तक जिंदा नहीं रह सकता है। इतना कहकर कन्फ्यूशियस ने हमेशा के लिए आंख मूंद ली।
दांत क्रूर और कठोर थे, इसलिए टूट गए
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