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जीवन का असली सुख सहजता में है, दिखावे में नहीं

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संजय मग्गू
दिखावा और प्रतिस्पर्धा मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। घर में अस्त व्यस्त, ऊटपटांग कपड़ों, तेल और मसाले की गंध से सराबोर महिलाएं और पसीने से बदबू मारते पुरुष जब बाहर निकलते हैं, तो एकदम सजे धजे रहते हैं, क्यों? ताकि लोग उन्हें देखें, उनके पहनावे, रूप-सौंदर्य की प्रशंसा करें। स्त्रियां के मन में यही चाहत होती है कि जब वह बाहर जाएं, तो हर व्यक्ति की निगाह उन पर ठहरे। यह एक स्वाभाविक गुण है। इसमें कोई बुराई भी नहीं है, जब तक रूप और सौंदर्य की सहज प्रशंसा की जाती रहे। गड़बड़ तब होती है, जब देखने वाला अनधिकार चेष्ठा कर बैठता है। ठीक वैसे ही प्रतिस्पर्धा भी मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है। सदियों से वह प्रतिस्पर्धा करता आया है, अपने भाइयों, बहनों, रिश्तेदारों और गांव-समाज के लोगों से। जब तक प्रतिस्पर्धा स्वस्थ रहती है यानी समाज और कानून द्वारा मान्य नियमों और परंपराओं के मुताबिक होती है, तो प्रतिस्पर्धा विकास की ओर ले जाती है। लेकिन जहां इससे डिगे, वहीं बात गड़बड़ हो जाती है। हमारे जीवन के हर पहलू में प्रतिस्पर्धा शामिल है। लेकिन धीरे-धीरे यह दिखावे के साथ मिलकर दूसरा रूप ले रही है। अगर हम अपने देश में ही गंभीरता से विचार करें, तो हमारे हर क्रिया कलाप में दिखावा और प्रतिस्पर्धा एक साथ मिलकर एक नया ही आयाम बना रही है। तीज-त्यौहार पहले की तरह सामान्य तरीके से मनाना हमने कई दशक पहले छोड़ दिया है। दिखावे की लत ने हमें ग्रस लिया है। उसने पांच हजार की साड़ी पहनी है, तो हम दो हजार की कैसे पहन सकते हैं। उसका बेटे ने नब्बे फीसदी मार्क्स हासिल किए,हमारे बेटे ने क्यों नहीं? यह दिखावा धार्मिक मामलों में भी कहीं न कहीं दिख ही जाता है। उसकी गणपति गणेश की मूर्ति दो फीट की है, तो हमारी तीन या पांच फीट की होनी ही चाहिए। छोटी मूर्ति लाने पर लोग क्या कहेंगे। उस धर्म के वालों ने इतना बड़ा जुलूस निकाला। हम भी इससे बड़ा जुलूस निकालेंगे। ऐसी प्रतिस्पर्धाएं हमें एक अंधे मोड़ पर लाकर खड़ा कर देती हैं। फिर या तो पतन होता है या फिर थोड़ी सावधानी बरतने पर इससे निजात मिल जाती है। जीवन का असली सुख सहजता में ही है। सहज रूप से सजना, कोई बुरा नहीं है, लेकिन जब हम अपने सजने में किसी की प्रतिस्पर्धा करने लगते हैं, वहीं मामला गड़बड़ा जाता है। जीवन का सारा सुख सहज रहकर उठाया जा सकता है। सहज न रहने से ही समाज में नकारात्मकता बढ़ रही है। लोगों का आपसी प्रेम, भाईचारा और सौहार्द बिगड़ रहा है। सामाजिक बिखराव के रास्ते पर हम दिनोंदिन अग्रसर होते जा रहे हैं। अविश्वास की गहरी खाई खोदी जा रही है। मामूली सी बातों पर कत्ल हो रहे हैं। बच्चे तक उग्र हो रहे हैं, आक्रामक हो रहे हैं। यह सब करके हम कौन सा समाज रच रहे हैं? लोग यह समझने को तैयार नहीं हैं। हमारी इस नासमझी का फायदा दूसरे लोग उठा रहे हैं। वे दूर खड़े होकर हमारी नकारात्मकता न सिर्फ बढ़ा रहे हैं, बल्कि उसका उपयोग कभी धर्म के नाम पर तो कभी जाति के नाम पर कर रहे हैं।

संजय मग्गू

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