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अपना कुनबा बढ़ाने की जुगत में सत्तापक्ष-विपक्ष

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जैसे-जैसे कुछ राज्यों में विधानसभा और  लोकसभा चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं। हमारे देश में राजनीतिक गतिविधियां तेज होती जा रही हैं। एक ओर विपक्ष ने इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इनक्लूसिव एलायंस यानी इंडिया बनाकर भाजपा और उसके सहयोगियों से लड़ने की तैयारी कर ली है। वहीं एनडीए यानी राजग (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) ने भी सहयोगियों को जोड़ना शुरू कर दिया है। कल बेंगलुरु में विपक्षी दलों की बैठक में जिस तरह का जोश और एकता देखने को मिली, उससे कम से कम यह आश्वस्ति अवश्य महसूस हुई कि इस बार मुकाबला काफी रोचक होगा। भाजपा के नेतृत्व में एनडीए ने जिस तरह छोटे-छोटे दलों को अपने साथ जोड़ना शुरू किया है, उससे यह आभास होता है कि  भाजपा को भी लगने लगा है कि इस बार लोकसभा चुनाव जीतना उतना आसान नहीं है

जितना वर्ष 2014 और 2019 में था। अगर आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर विश्लेषण किया जाए, तो यह चुनाव दोनों पक्षों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न है। तीसरी बार सत्ता पाने के लिए चुनाव मैदान में उतरने जा रही भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता भले ही विपक्षी दलों के नेताओं के मुकाबले कहीं ज्यादा हो, लेकिन यह भी सच है कि मोदी की लोकप्रियता वर्ष 2014 और 2019 के मुकाबले में कम जरूर हुई है। लोगों में उनका क्रेज कम हुआ है। वर्ष 2014 और 2019 में नरेंद्र मोदी की अपराजेय वाली छवि गढ़ने की कोशिश की गई थी, लेकिन इस बार यह छवि खंडित हो गई है। हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में मोदी मैजिक नहीं चला है। राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की स्थिति मजबूत मानी जा रही है। वहीं छत्तीसगढ़ में भी भूपेश बघेल भी मजबूत स्थिति में हैं। लेकिन मध्य प्रदेश में भाजपा की आंतरिक गुटबाजी उभरकर सामने आ चुकी है।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यहां भाजपा के साथ कुछ भी हो सकता है। मध्य प्रदेश की शासन-व्यवस्था से लोग असंतुष्ट हैं। यदि मध्य प्रदेश में भाजपा हार जाती है, तो इसका प्रभाव आगामी लोकसभा चुनाव में जरूर पड़ेगा। वहीं कल बेंगलुरू में जिस तरह आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस ने विपक्षी दलों की एकता के लिए नरम रुख अख्तियार किया है, उससे यह लगने लगा है कि विपक्ष अब राजनीतिक नरेटिव तय करने की भूमिका में आ चुका है। अभी तक यह आशंका व्यक्त की जा रही थी कि प्रधानमत्री के चेहरे को लेकर विपक्षी दलों में खींचतान रहेगी जिसकी वजह से यह एकता स्थायी नहीं रहेगी।

लेकिन कल बैठक के बीच में ही कांग्रेस ने यह कहकर इस मामले का पटाक्षेप कर दिया कि कांग्रेस को प्रधानमंत्री पद का लालच नहीं है। चुनाव के बाद विपक्षी दल खुद ही तय करेंगे कि उनका प्रधानमंत्री कौन हो? कांग्रेस के इस बयान से यह विवाद भी थमता नजर आ रहा है कि कांग्रेस पीएम पद के चलते विपक्षी एकता में बाधा पैदा कर रही है। कांग्रेस पार्टी अकेले चलना चाहती है। उसकी विपक्षी एकता में रुचि नहीं है।

संजय मग्गू

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